आशिमा डोगरा

सौर-पूर्व कणों का पिटारा

एक ग्रह वैज्ञानिक  
वैज्ञानिक कुलदीप कौर ‘प्रायोगिक अप्रत्यक्ष खगोल विज्ञान’ (एक्सपेरिमेंटल इनडायरेक्ट एस्ट्रोनॉमी) पर काम कर रही हैं। यह दूरबीन के बगैर ब्रह्माण्ड के अध्ययन के चन्द तरीकों में से एक तरीका है।

रिक्शा ने मुझे पीआरएल (भौतिकी अनुसन्धान  प्रयोगशाला)  के वैज्ञानिकों के क्वार्टर्स के बाहर छोड़ दिया। मैंने सिक्यूरिटी रजिस्टर में अपनी जानकारी भरी और कुलजीत का मकान ढूँढ़ने लगी। जब मुझे उनका मकान मिला, तो मुझे लगा कि मैं थोड़ा जल्दी आ गई थी। बैठक में उनकी छह वर्षीय बेटी के खिलौने और स्टिकर मज़े से बिखरे पड़े थे। ताज़े पराठों की खूशबू कमरे में फैली हुई थी। हालाँकि वे तैयार नहीं थीं, किन्तु कुलजीत ने अपने घर में गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मैंने देखा कि उन्होंने धैर्यपूर्वक अपनी नन्ही बच्ची के साथ चन्द घण्टे एकान्त में बिताने की एवज में उससे कुछ समय लिया ताकि हम साक्षात्कार पूरा कर सकें।
“मैं अकेली हूँ, तो बहुत आसान नहीं होता,” उन्होंने सीधे मेरी आँखों में देखते हुए दृढ़ता से कहा। कुलजीत ने बताया कि एक तलाकशुदा व्यक्ति और एकल अभिभावक के रूप में पीआरएल में उनकी नौकरी के शुरुआती वर्ष उनकी ज़िन्दगी का सबसे मुश्किल समय रहा था। हालाँकि, बाद में उन्होंने फिर से विवाह किया, लेकिन आज भी वे इन्तज़ार कर रही हैं कि कब वे नए परिवार के साथ मिलकर जीवन की शुरुआत करेंगी।

उन्होंने बताया कि वे देश में एकमात्र व्यक्ति हैं जो ‘प्रायोगिक अप्रत्यक्ष खगोल विज्ञान’ पर काम कर रही हैं। दूरबीन के बगैर ब्रह्माण्ड के अध्ययन के कुछेक ही तरीके हैं। यह उनमें से एक है। काफी समय तक उनकी टीम में कोई स्थाई स्टाफ नहीं था जबकि वे एक विशालकाय परिष्कृत उपकरण की मदद से ऐसे बड़े-बड़े सवालों के जवाब पाने की कोशिश में लगी थीं कि ‘तत्व कहाँ से आते हैं?’ और ‘हमारे सौर मण्डल के जन्म से पहले क्या हुआ था?’
बातचीत के दौरान मैं समझ चुकी थी कि इस सबको करने की ताकत किसी में है, तो कुलजीत में है।

खून-पसीना और टूटा हुआ नैनोसिम्स
जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट में तीन वर्ष पोस्ट-डॉक्टरल अनुसन्धान और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में थोड़ा समय बिताने के बाद 2007 में कुलजीत पीआरएल लौट आईं (जहाँ से उन्होंने पीएच.डी. की थी)। वहाँ आते ही वे एक अग्रणी ग्रह विज्ञान प्रयोगशाला स्थापित करने के काम में जुट गईं। उनकी प्रयोगशाला का मुख्य उपकरण नैनोसिम्स होने वाला था -- यह एक अत्यन्त परिष्कृत मास स्पेक्ट्रोमीटर होता है, जिसकी लागत 14 करोड़ रुपए होती है। दुनिया भर में मात्र 22 ऐसे उपकरण हैं, तो यह सचमुच एक राष्ट्रीय खज़ाना ही कहा जाएगा।

“जब यह उपकरण भारत पहुँचा तो गिरकर टूट गया,” कुलजीत ने अपनी शुरुआती तकलीफों की कहानी शुरु करते हुए कहा। टूटे हुए नैनोसिम्स को वापिस फ्रांस में उसके निर्माताओं के पास भेज दिया गया। इसे वापिस पीआरएल पहुँचने में लगभग एक साल लग गया, और कुलजीत के लिए दुख की बात यह थी कि अभी भी यह पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था। “कोई कम्पनी सारे पुर्ज़े नहीं बदलती, तो एक-एक करके यह फिर से टूटने लगा। किसी दिन पम्प काम करना बन्द कर देता, तो किसी दिन कन्ट्रोलर की बारी होती, तीसरे दिन रेगुलेटर बिगड़ जाता।” स्थाई स्टाफ या तकनीकी/प्रयोगशाला सहायक तो था नहीं, तो कुलजीत ने ही नैनोसिम्स की मरम्मत की। “मैं नितान्त अकेली थी। मैं गर्भ से थी। मैंने कोई छुट्टी, कोई ब्रेक नहीं लिया...।”

“आपने मुझे देखा होता,” उन्होंने मुस्कराकर कहा। “गर्भ वाला बड़ा-सा पेट लेकर -- मैं उस समय तलाकशुदा थी -- मैं पेचकस और पाने लेकर टूटा हुआ उपकरण सुधारती थी, बहुत बुरा समय था। मैंने काफी मुश्किल से उस उपकरण को ठीक किया।”
कुलजीत ने गर्भावस्था के दौरान किसी तरह का कोई अवकाश नहीं लिया था। उन्होंने तो बस एक तारीख मुकर्रर कर ली थी कि उस दिन वे सी-सेक्शन (सीज़ेरियन ऑपरेशन) से प्रसव करेंगी और उसके बाद थोड़े समय आराम करके, काम पर लौट आईं। “मैंने एशा के लिए पीआरएल आईडी कार्ड (पहचान पत्र) बनवा लिया और तब से मेरी 40 दिन की बच्ची मेरे साथ प्रयोगशाला में ही रही। दिन हो रात, वह वहीं 19 डिग्री सेल्सियस तापमान में सोती थी।”

उन्होंने स्वीकार किया, “मैंने इस उपकरण को अपना खून-पसीना और बेटी का कीमती समय दिया है।”

इस कठिन शुरुआत के बाद स्थिति सामान्य होती गई और चीज़ें कुलजीत के हक में बदलने लगीं। टूटे उपकरण के अनुभव ने उनके प्रयोग को 2011 तक के लिए मुल्तवी कर दिया था मगर उन्होंने इस देरी को सम्भाल लिया। वीमेन्स एक्सलेंस अवॉर्ड से अपने शोध कार्य के लिए मिली वित्तीय मदद की बदौलत, उन्हें अस्थाई रूप से एक स्थाई शोध कर्मचारी मिल गया। उन्होंने पिछले सप्ताह ही मुझे ईमेल के ज़रिए यह खुशखबरी दी: “अब मेरे साथ एक स्थाई कर्मचारी है -- तो अब 7-8 साल के बाद -- मैं प्रयोगशाला में अकेली नहीं हूँ।” आज कुलजीत सर्वोत्तम शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित अपने अध्ययनों को लेकर गौरवान्वित हैं - पाँच साइन्स में प्रकाशित हुए हैं। इनमें एक अध्ययन युवा सूर्य की गतिविधियों के बारे में है।

नैनोसिम्स क्या करता है?
उन्होंने मुझे अपने लैपटॉप में एक तस्वीर दिखाते हुए कहा, “यह रहा नैनोसिम्स। यह मेरी मशीन है। यह एक सुन्दर उपकरण है, जिसमें 250 मापदण्ड हैं -- मतलब काफी सूक्ष्म ट्यूनिंग की गुंजाइश है इसमें।”
कुलजीत अपने उपकरण में जिन नमूनों की जाँच करती हैं, वे कभी-कभी सूर्य से भी ज़्यादा पुराने होते हैं। नैनोसिम्स  नमूनों  में  उपस्थित समस्थानिकों (आइसोटोप्स) को सटीक रूप से अलग-अलग कर लेता है। यह उनके परमाणु द्रव्यमान के आधार पर किया जाता है। उन्होंने बताया, “मैं सौर-पूर्व कणों (pre-solar grains) के साथ काम करती हूँ। मैं नैनोसिम्स में उनका विश्लेषण करती हूँ और (भारी व हल्के) समस्थानिकों के अनुपात देखती हूँ। ये अनुपात उस समय की घटनाओं के हस्ताक्षर (द्योतक) होते हैं जो सूर्य के निर्माण के दौरान या उससे पहले घटी थीं।”
पूरी बात बताने से पहले कुलजीत ने समस्थानिकों का परिचय दिया, “आपके खून में लौह (तत्व) है, आपके दाँतों में फॉस्फोरस है, हड्डियों में कैल्शियम है। यदि मैं इन तत्वों को अलग-अलग करना चाहूँ तो मैं रसायन शास्त्र की मदद ले सकती हूँ -- यह कोई  बड़ी  बात  नहीं  है।  मगर समस्थानिकों की बात अलग है। एक ही तत्व के अलग-अलग रूप हो सकते हैं जिनमें न्यूट्रॉनों की संख्या अलग-अलग होती है, और उसके अनुसार अलग-अलग समस्थानिक होते हैं। मिसाल के तौर पर, ऑक्सीजन के तीन अलग-अलग परमाणु भार हो सकते हैं -- 16, 17 व 18। ये ऑक्सीजन के समस्थानिक हैं। यदि मैं 16, 17 व 18 (परमाणु भार वाले समस्थानिकों) को अलग-अलग करना चाहूँ, तो मुझे मास स्पेक्ट्रोमीटर की ज़रूरत होगी।”

नैनोसिम्स  जैसे  किसी  मास स्पेक्ट्रोमीटर में एक विशाल चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसकी मदद से नमूने में समस्थानिकों को पृथक किया जा सकता है। ऐसा करना सम्भव होता है क्योंकि प्रत्येक समस्थानिक का एक विशिष्ट संहति-आवेश अनुपात होता है। कुलजीत के हाथों में जो उपकरण है वह वास्तव में एक द्रव्यमान-पृथक्कारक है जो नैनो (अतिसूक्ष्म) स्तर पर काम करता है। उन्हें किसी नमूने में भारी व हल्के समस्थानिकों का अनुपात पता हो, तो वे बता सकती हैं कि वह नमूना कहाँ से आया है और कब का है -- क्या वह किसी शिशु सूर्य का है या अन्य किस्म के तारे का है -- और तारकीय-सौरमण्डलीय विकास के किस बिन्दु का है।

सुपरनोवा विशालकाय तारे होते हैं  जिनकी  जीवनलीला  नाटकीय विस्फोट के साथ समाप्त होती है। इस विस्फोट के दौरान नव-निर्मित तत्व और अन्य तारा पदार्थ (जैसे गैसें और धूल) ज़बर्दस्त आघात-तरंगों के साथ निकलते हैं। आम तौर पर ये नए तारों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आम तौर पर ‘सुपरनोवा बनने वाले’ तारे सूर्य से लगभग 90 गुना भारी होते हैं। “मैंने टाइटेनियम, बेरियम, सिलिकॉन, नाइट्रोजन, कार्बन, ऑक्सीजन, निकल, लौह और हाल ही में क्रोमियम समस्थानिकों के साथ काम  किया  है।  ये  (क्रोमियम समस्थानिक) बहुत खास हैं क्योंकि क्रोमियम का एकमात्र स्रोत सुपरनोवा हैं -- अन्य किसी किस्म का तारा क्रोमियम उत्पन्न नहीं करता। और ये लौह जैसी अन्य ट्रांज़िशन धातुओं के समान सुपरनोवा के अन्दरूनी कोर में बनते हैं, न कि बाहरी परतों में जहाँ हाइड्रोजन, हीलियम और ऑक्सीजन पाए जाते हैं।”

सौर-पूर्व कण मिले कहाँ से?
“जब कोई सुपरनोवा फटता है, तो अन्दरूनी कोर को बाहर आना पड़ता है। कोई नहीं बता सकता कि अन्दरूनी कोर किन चीज़ों से बना है या अन्दरूनी कोर किस तेज़ी-से अभिक्रिया कर रहा है, किसी तारे की विभिन्न परतों के बीच किस तरह का सम्मिश्रण हो रहा है। किन्तु सौर-पूर्व कण बता सकते हैं।”
कुलजीत ने ज़्यादातर जिन सौर-पूर्व कणों के साथ काम किया है वे उल्का-पिण्डों से प्राप्त हुए हैं। इन्हें अक्सर गरीब का अन्तरिक्ष कार्यक्रम कहा जाता है। “यह आपके घर आता है। यह आपके ठीक सामने गिरता है और यदि यह अति-प्राचीन निकला तो आप खुशकिस्मत हैं।” सूक्ष्म-उल्कापिण्ड भी होते हैं जिन्हें समुद्र की गहराइयों से बीन सकते हैं। या यदि आप पृथ्वी के स्ट्रेटोस्फीयर में (काफी ऊँचाई पर) कोई टोही भेजें तो हो सकता है वहाँ कुछ धूल मिल जाए जो शायद किसी धूमकेतु के पृथ्वी की कक्षा के नज़दीक से गुज़रने के समय गिरी हो।
पृथ्वी पर गिरने वाले आदिम उल्का पिण्डों के भरोसे रहने के अलावा, कुलजीत लगातार नासा और जापानी अन्तरिक्ष एजेंसी जाक्सा जैसी संस्थाओं के अन्तरिक्ष मिशनों के दौरान लाए गए नमूनों में से सौर-पूर्व कण प्राप्त करने के लिए प्रस्ताव लिखती रहती हैं। उन्होंने प्रसन्नता से बताया, “हाल ही में मुझे इतोकावा नामक क्षुद्र ग्रह से कुछ नमूने मिले थे। इन्हें जाक्सा का हयाबुसा नामक मिशन लेकर आया था। भारत में मैं एकमात्र व्यक्ति हूँ जिसने क्षुद्र ग्रह (asteroid) के नमूने को छुआ है। रोमांचक बात है, नहीं?”

वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में बिताए समय  के  दौरान  कुलजीत  उस अन्तर्राष्ट्रीय टीम की सदस्य थीं जिसे स्टारडस्ट मिशन नामक उल्का पिण्ड से प्राप्त नमूनों के विश्लेषण का काम सौंपा गया था। उन्होंने अपने लैपटॉप पर एक तस्वीर की ओर इशारा करते हुए पूछा, “ये निशान दिख रहे हैं? ये उल्का पिण्ड पर उपस्थित कण हैं। मैंने इन्हीं टुकड़ों पर काम किया था। मैंने कण निकालकर एक महीन झिल्ली पर रखा और उसे अपने नैनोसिम्स में डालकर उसका विश्लेषण किया। मैंने कण को छुआ था, सीधे-सीधे नहीं, एक चिमटी की मदद से।”

तत्व कहाँ से आते हैं?
कुल मिलाकर, कुलजीत का काम उस तरफ इंगित करता है जिसके बारे में हम सभी सोचते रहते हैं। हमें चारों तरफ तत्व नज़र आते हैं, किन्तु वे आते कहाँ से हैं? आगे कुलजीत तत्वों के नाभिकीय-संश्लेषण के बारे में समझा रही हैं। इसी नाभिकीय संश्लेषण की मदद से उनके जैसे वैज्ञानिक हमारे ब्रह्माण्डीय विकास की पहेली के टुकड़ों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
“किसी भी तारे में जो अभिक्रिया चलती है, वह है हाइड्रोजन अ हाइड्रोजन उ हीलियम। यदि तारा थोड़ा भारी हो तो फिर तीन हीलियम परमाणु जुड़कर कार्बन बनाते हैं। इसके बाद वह कोर के अन्दर घूमेगा और  वहाँ  हाइड्रोजन  व हीलियम के अलावा कार्बन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन होंगे। यह तो सभी सामान्य तारे कर सकते हैं।”
“अलबत्ता,  सुपरनोवा ज़्यादा भारी होता है, इसलिए उसकी संरचना ज़्यादा उग्र होती है। यदि तारे का द्रव्यमान ज़्यादा हो, तो जलाने के लिए ज़्यादा पदार्थ उपलब्ध होता है। काफी सारा कार्बन बनने के बाद भी यदि हीलियम बची रहती है, तो जलाने के लिए और कार्बन रहेगा। यदि कार्बन कोर काफी बड़ा हो, तो वह और घना हो जाएगा और (आवर्त तालिका में) और आगे बढ़ेगा।”
“सारे भारी तत्व सुपरनोवा से ही आए होंगे। और फिर सैकड़ों सामान्य तारे हैं जो रासायनिक विकास में योगदान देते रहते हैं।”

“व्याख्या की दृष्टि से, आइए, हम बिग बैंग के बाद की 1 अरब वर्ष की अवधि पर विचार करते हैं। मानकर चलते हैं कि इस अवधि में मात्र दो सुपरनोवा थे। मान लेते हैं कि ये लौह समस्थानिकों की कुछ मात्रा उत्पन्न करते हैं जो ब्रह्माण्ड में प्रवेश करती है जहाँ अधिकाधिक तारे बन रहे हैं। ये नवनिर्मित तारे पूर्व में विद्यमान लौह समस्थानिकों को प्रोसेस करेंगे जिससे रासायनिक विकास आगे बढ़ेगा। 10 अरब वर्ष बाद और कई सुपरनोवा होंगे, और तत्व बनेंगे, जबकि अन्य तारों में शुरुआती तत्वों का प्रोसेसिंग जारी है। जब वे नए तारों में पहुँचेंगे तो उनका प्रोसेसिंग होगा अर्थात् परमाणुओं में एक-एक न्यूट्रॉन जोड़ा जा रहा है। यदि आप लौह के 54 परमाणु भार वाले समस्थानिक में एक न्यूट्रॉन जोड़ते हैं तो वह 55 परमाणु भार वाला समस्थानिक बन जाएगा, फिर वह 56 बन जाएगा। इस प्रकार से 56 लौह का समृद्धिकरण होता है। समृद्धि-करण से आशय है कि जितने से शुरु किया था, उससे ज़्यादा।”

“समय    के  साथ निहारिकाएँ धात्विकता की ओर विकास कर रही हैं। यह एक समय-निर्भर प्रक्रिया है जिसका हम काल-निर्धारण कर सकते हैं।”
कुलजीत के लिए इस सबमें मज़ा यह है कि वे अपनी प्रयोगशाला में सौर-पूर्व कणों में पाए जाने वाले समस्थानिकों के साथ काम करते हुए बहुत-बहुत सुदूर अतीत में जा सकती हैं। वे कहती हैं, “महज़ नैनोसिम्स के अपने आँकड़ों को देखकर मैं समझ सकती हूँ कि निहारिका का विकास कैसे हो रहा था।”

‘दो पिण्डों की समस्या’ से सामना
अपने काम के दौरान, उन्होंने दुनियाभर के कई वैज्ञानिकों के साथ सहयोग से काम किया है। अपने एक सहयोगी के साथ उन्होंने विवाह भी किया है। कुलजीत ने तीन वर्ष पहले साथी ग्रह वैज्ञानिक रितेष कुमार मिश्रा से विवाह किया। इन दोनों ने कम-से-कम चार शोध पत्र संयुक्त रूप से लिखे हैं किन्तु यह युवा दम्पति अभी अलग-अलग रहते हैं।
“एशा होशियार बच्ची है किन्तु वह बीच-बीच में पिता को याद करती है और यह सवाल बार-बार पूछती है: डैड हमारे साथ क्यों नहीं रहते?”
यह एक अनकहा, अनाधिकारिक नियम है कि पति-पत्नी को एक ही संस्थान में पक्की नौकरी पाने की अनुमति  नहीं  है  और  यह  नियम ऐतिहासिक रूप से हमारे अकादमिक संस्थानों में चला आ रहा है। इस प्रोजेक्ट (The Life of Science) के दौरान भी हमें इस ‘दो पिण्ड की समस्या’ का सामना कई बार करना पड़ा। जिन विवाहित महिला वैज्ञानिकों से हमने साक्षात्कार किए, उनमें से बड़ी संख्या में महिला वैज्ञानिक अन्य वैज्ञानिकों से विवाहित हैं (39 में से 15)। इसे देखते हुए हम इस अनकहे (अनाधिकारिक)  कायदे  को  एक संस्थागत लिंगभेदवादी नीति मानते हैं जो महिलाओं को विज्ञान से दूर रखने का काम करती है।
एशा के सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर है कि पीआरएल में लम्बित नौकरी के आवेदन का क्या हश्र होता है। कुलजीत के मुताबिक, उनके पति ने आवेदन किया है और वे इस संस्थान के पूर्व छात्र भी रहे हैं। वे इस नौकरी के लिए पूरी तरह योग्य हैं।  “वे  जर्मनी  में  हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में हम्बोल्ट फेलो हैं। उन्होंने दो वर्ष नासा के जॉनसन स्पेस सेंटर में काम किया है। हम उन्हें अहमदाबाद में देखने की उम्मीद कर रहे हैं, बशर्ते कि संस्थान माने कि दम्पति स्वीकार्य है।”

आइसर (भारतीय विज्ञान शिक्षा व अनुसंधान संस्थान) और आईआईटी (भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान) कानपुर जैसे कुछ संस्थानों ने दम्पतियों को नौकरी देकर इस नियम को दरकिनार करने के लिए कदम आगे बढ़ाए हैं। किन्तु कुलजीत का मामला गवाह है कि पीआरएल को कुछ करना होगा।
कुलजीत को लगता है, “उनके (उनके पति के) पास कई प्रतिष्ठित फेलोशिप हैं और यदि उनके आवेदन पर विचार नहीं किया जा रहा है तो क्या यह दम्पति वाली बात है या भारत को ग्रह वैज्ञानिकों की ज़रूरत ही नहीं है?”
“आप हमेशा प्रतिभा पलायन का रोना रोते हैं। यहाँ यह आदमी है जो योग्य है, वापिस आने की कोशिश कर रहा है किन्तु उसे नहीं लिया जा रहा है क्योंकि वह मेरा पति है,” उनकी इस बात में दोहरे मापदण्ड के प्रति असन्तोष साफ झलकता है।
पीआरएल की एक और वैज्ञानिक श्रुबबती, जिनका हमने साक्षात्कार किया था, की स्थिति भी ऐसी ही है, हालाँकि उनके मामले में नियम को हटाया गया था। “अन्तत: श्रुबा खुशकिस्मत रही। वे कई सालों से अलग-अलग रह रहे थे।”

“मुझे लगता है कि हमें मौका मिलना चाहिए कि हम अपने बच्चों के लिए बेहतर जीवन संजो सकें।”
शुक्रिया पिता, मैं एक नारीवादी हूँ
उन्होंने एक महिला मंच पर किसी महिला को कहते सुना था और वह बात उनके कानों में गूँजती रहती है। उस महिला ने कहा था, “मैं सब कुछ नहीं कर सकती क्योंकि पीछे घर पर एक बीवी नहीं बैठी है।” यह वक्तव्य इस बात की गवाही देता है कि आज भी अधिकांश भारतीय परिवारों में उम्मीद की जाती है कि पत्नियाँ सारे घरेलू कामकाज सम्भालेंगी ताकि उनके पति अपने सपने पूरे करने को स्वतंत्र रहें। “विज्ञान वह चीज़ है जिसके लिए आपने अपना जीवन समर्पित किया है। यदि आप घर पर सारे काम करती हैं, तो यह सम्भव नहीं है कि आप विज्ञान भी कर लें।”
जेंडर की खाई को पाटने के लिए कुलजीत सुझाव देती हैं कि विज्ञान में शुरुआती कैरियर में महिलाओं के लिए ज़्यादा फेलोशिप की ज़रूरत है। इसके अलावा, मानदेय (स्टाइपेंड) में वृद्धि होना चाहिए ताकि वे वित्तीय दृष्टि से स्वतंत्र रहें और उनकी पीएच.डी. अवधि को भी बढ़ाया जाना चाहिए।

और  उन्होंने  कहा  कि  सबसे महत्वपूर्ण चीज़ पालकों का समर्थन है। “हर महिला को वैसा समर्थन नहीं मिलता है, जैसा मुझे मिला था। मेरे पालक और मेरी बहनें तलाक के समय और दूसरी शादी के समय मेरे साथ थे। आज भी, जब मुझे किसी सम्मेलन में जाना होता है, तो मेरे माता-पिता आकर एशा की देखभाल करते हैं। मगर यदि मैं कहूँ कि मैं खेलकूद की किसी बैठक में जाना चाहती हूँ, तो वे मना कर देते हैं। जहाँ विज्ञान का मामला है, वे साथ देंगे किन्तु कोई और चीज़ हुई तो उन्हें यहाँ बुलाना मुश्किल होता है।” उन्होंने मज़ाक में कहा। “जब परिवार आपका साथ देता है तो आप बहुत मज़बूत हो सकते हो।”
कुलजीत अपनी रुचियों और प्रगति के लिए अपने पिता की शुक्रगुज़ार हैं। “उनका नाम सरदार सिंह मरहास है। उनकी तीन बेटियाँ हैं और वे रूढ़िवादी परिवार के विरुद्ध खड़े रहे। जब परिवार ऐसी बातें कर रहा था कि बेटियों की शादी के आसार बरबाद हो चुके हैं, उन्होंने अपनी बेटियों के लिए उच्च शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई में ग्लास ब्लोइंग सेक्शन में एक सहायक के रूप में काम शुरू किया था और कड़ी मेहनत के दम पर वे वैज्ञानिक-ई के रूप में रिटायर हुए थे -- उसी पदानुक्रम पर जहाँ मैंने पीआरएल में काम शुरू किया था।”
कुलजीत ने बताया कि उनके पिता परिवार में अपने प्रगतिवादी मूल्यों के लिए जाने जाते हैं, खास तौर से यह कहने के लिए कि “मेरी बेटियाँ रसोई घर के लिए नहीं बनी हैं।”


अँग्रेज़ी से अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह आलेख मूलत: 1 अक्टूबर, 2017 को The Life of Science में प्रकाशित हुआ था। दी वायर (The Wire) को आशिमा डोगरा के इस प्रोजेक्ट को समर्थन देकर खुशी है। आशिमा डोगरा कुछ अनजानी महिला वैज्ञानिकों से मुलाकात करने के लिए देश भर में घूम रही हैं।