कालू राम शर्मा


मालती बेन नहीं रहीं! इस खबर ने हम सबको झकझोरकर रख दिया है। मालती बेन का हमारे बीच से यों चले जाना एक अध्याय के अधूरे रह जाने जैसा है। मालती महोदय पिछले कुछ सालों से कैंसर से जूझ रही थीं।
मालती बेन धार के एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं। वे होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ीं। 1984 में जब मैं पहली बार उनसे मिला तो उन्होंने बताया कि वे केवल कक्षा छठी तक ही स्कूल गई थीं। उसके बाद उन्होंने आर्ट्स विषय लेकर स्वाध्यायी (प्राइवेट) तौर पर आगे की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने विज्ञान की पढ़ाई महज़ आठवीं तक ही पाई थी।
1983 में उन्होंने पहली बार होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (होविशिका) से प्रशिक्षण प्राप्त किया और इसके बाद सतत रूप से इसे तीन वर्ष तक जारी रखा और इसमें रम गईं। विज्ञान शिक्षण के मान्य सिद्धान्तों पर उन्होंने मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके धार शहर के कन्या माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-3 में अध्यापन किया। वे बच्चियों को नियमित रूप से परिभ्रमण पर ले जातीं। स्कूली कार्यकाल में उन्होंने विज्ञान शिक्षण में अनेक मिसालें रचीं।

होविशिका प्रशिक्षण
1983 की गर्मी के दिनों में मालवा में पहली बार होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम का प्रशिक्षण उज्जैन में आयोजित किया गया था। उन दिनों होविशिका का प्रसार होशंगाबाद ज़िले के बाहर, मालवा में किए जाने की प्रक्रियाएँ ज़ोरों पर थीं। शासकीय महाविद्यालय, धार के जीव शास्त्र के प्राध्यापक भरत पुरे होविशिका से जुड़े थे और वे धार एवं तिरला के माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों से प्रशिक्षण में भागीदारी के लिए सम्पर्क कर रहे थे। धार शहर के पाँच स्कूलों का चयन किया गया जिसमें शासकीय कन्या माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-3 भी शुमार था। उस स्कूल से मालती महोदय का नाम प्रस्तावित हुआ। इसकी वजह यह नहीं थी कि वे विज्ञान विषय की डिग्री लिए थीं बल्कि वजह यह थी कि उस दौरान स्कूलों में अधिकांशत: आर्ट्स विषय के शिक्षक-शिक्षिकाएँ विज्ञान शिक्षण कर रहे थे। वैसे यह केवल विज्ञान विषय के मामले में ही हो, ऐसा नहीं, अन्य विषयों में भी यही हाल था।
मासिक बैठक, शिक्षकों की सतत तैयारी  और  फीडबैक  मैकेनिज़्म होशंगाबाद विज्ञान का एक प्रमुख तत्व था जहाँ संगम केन्द्र के शिक्षक-शिक्षिकाएँ एकत्र होते और अपने अनुभवों को साझा करते व कक्षा में आई समस्याओं के निराकरण के उपाय खोजते। मासिक बैठक में आने वाले दिनों में पढ़ाए जाने वाले अध्यायों की तैयारी जैसे मसलों को भी शामिल किया जाता। मुझे याद है, जब मालती महोदय तीन वर्षों का होशंगाबाद विज्ञान का प्रशिक्षण पाकर स्रोत दल में शामिल हो गईं। तभी से फिर वे धार संगम केन्द्र की मासिक बैठकों की तैयारी और उसके आयोजन में अहम भूमिका अदा करने लगीं।

टोलियों में कार्य को अहमियत
मालती बेन होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के पहलुओं को बारीकी से अपनी कक्षाओं में शुमार करने की कोशिश करतीं। और वे ऐसा कर पाईं। कक्षाओं में बच्चे टोलियों में काम करते। टोलियों में काम करने के पीछे के निहितार्थ अहम हैं। टोली में काम करने की अवधारणा बच्चों के अकेलेपन को तोड़ती है जहाँ बच्चे कक्षा में प्रयोग करने के दौरान व उसके उपरान्त चर्चा करें और सामूहिक रूप से किसी निष्कर्ष तक पहुँचें। मालती महोदय की कक्षा में मैंने बच्चों को हमेशा टोलियों में काम करते हुए पाया।
टोलियों में कार्य को वे हमेशा ही अहमियत देतीं। इसके लिए थोड़ा वक्त ज़रूर लगता मगर उन्होंने इसकी प्रासंगिकता को समझा था। टोलियों में काम करने का अर्थ है कि बच्चों को आपस में कुछ सामूहिक रूप से करने और सोचने के अवसर देना। चार-चार की टोलियाँ बनाने का उनका ढंग भी निराला था। वे बच्चियों के मिश्रित समूह बनातीं। उनकी ज़बान पर कभी ये बात नहीं होती कि फलाँ लड़की कमज़ोर है। मगर वे उनके आकलन के आधार पर ऐसे समूह बनातीं कि टोलियों में विविधता बनी रहे और बढ़िया-से काम हो।
होशंगाबाद  विज्ञान  में  चूँकि प्रायोगिक कार्य किया जाना होता था इसलिए एक पीरियड जो कि लगभग 40 मिनट का होता है, इसमें अगर प्रयोग हो तो फिर निष्कर्ष निकालना व चर्चा छूट जाती है। इसके लिए नियम कुछ ऐसा बनाया गया था कि विज्ञान विषय के लिए दो पीरियड एकसाथ दिए जाएँ। मालती बेन इस नियम को अपनी कक्षाओं में लागू करने की हरदम कोशिश करतीं। कई दफे उन्होंने शिक्षा विभाग के नुमाइन्दों को भी इसकी स्पष्ट समझ से रूबरू कराया। आखिर दो पीरियड का क्या औचित्य है, इसको लेकर वे न केवल अपने स्कूल में बल्कि जब वे धार के अन्य स्कूलों में शैक्षिक विज़िट करने जातीं तो वहाँ के प्रधानअध्यापकों को भी होविशिका की कक्षाओं में दो पीरियड के प्रावधान की प्रासंगिकता का ज़िक्र करतीं और उन्हें इसके लिए राज़ी करवातीं।

मालती बेन ने यह बात समझ ली थी कि प्रयोग या गतिविधि करना विज्ञान शिक्षण का एक चरण है। और प्रयोगों से प्राप्त आँकड़ों पर सामूहिक चर्चा और निष्कर्ष निकालना अगला अहम कदम है। एक बार मैं उनकी छठी कक्षा में गया जहाँ ‘दूरी मापना’ अध्याय पर काम हो रहा था। शिक्षिका ने टोलियों को निर्देश दिए कि वे दी गई वस्तु की दूरी स्केल से मापें। टोलियों द्वारा वस्तु की दूरी मापने के बाद आँकड़ों को सामूहिक तौर पर बोर्ड पर लिखा गया। अब शिक्षिका ने बोर्ड पर लिखे गए आँकड़ों को पढ़ने को कहा। इन आँकड़ों को देखकर क्या लगता है? क्या सभी माप एक जैसे हैं या अलग-अलग हैं? अब इन आँकड़ों का क्या किया जाए? ये वे मामूली-से समझे जाने वाले सवाल थे जो विज्ञान की कक्षा में जान डाल देते हैं। यह सही है कि प्रयोग से प्राप्त आँकड़ों पर अगर कक्षा में चर्चा न हो तो प्रयोग करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मालती बेन की कक्षा में हमेशा ही हर अध्याय को पढ़ाने के दौरान इस तरह के सवाल ज़रूर होते जो विज्ञान शिक्षण की प्रक्रिया को स्थापित करने में मील का पत्थर साबित होते।
दूरी मापते वक्त स्केल का इस्तेमाल कैसे किया जाए, आँखों को कैसे रखा जाए इत्यादि बातें आम तौर पर सावधानी के बतौर बच्चों को बताई जाती हैं। मगर दूरी मापने के कौन-से आँकड़ों में गड़बड़ है, क्या त्रुटियाँ हुई होंगी मापने के दौरान इत्यादि, इन बातों को उस कक्षा में चर्चा का हिस्सा बनते मैंने देखा। मालती बेन अपनी कक्षाओं में गलतियों को सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में देखतीं थीं।
जहाँ सीखने का अवसर मिलता वहीं तार्किक विश्लेषण कैसे किया जाता है, इसका मौका भी मिलता। शिक्षा और विज्ञान शिक्षण में वैसे तो बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल आम बात बन चुकी है, वहीं मालती बेन की कक्षा में ये सही मायनों में विमर्श के हिस्से बनते। दूरी मापने के दौरान किन आँकड़ों को छोड़ा जाए और क्यों, यह फैसला तार्किक तौर पर करने का अर्थ है -- तार्किक गुणों का विकास।

एक सजग और प्रयोग पसन्द शिक्षिका
एक शिक्षिका के रूप में मालती बहन ने अपने स्कूल में विज्ञान की बढ़िया लेब बनाई जो कि होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण का प्रमुख आयाम था। वे हमेशा ही अपनी लेब में विज्ञान किट के प्रति सजग रहती थीं। लेब की ज़िम्मेदारी उन्होंने बच्चियों को दे रखी थी। उनका मानना था कि बच्चों में ज़िम्मेदारी का भाव तब आता है जब ज़िम्मेदारियाँ उन्हें सौंपी जाएँ और उन्हें उसके बारे में योजना बनाने और क्रियान्वित करने के अवसर दिए जाएँ।
मालती बेन का बच्चों में अगाध भरोसा था। उनका भरोसा था कि बच्चे सीख सकते हैं। वे अपनी कक्षाओं की बच्चियों को ज़िम्मेदारी सौंपतीं और उन्हें एहसास करातीं कि वे कुछ कर सकती हैं। उनकी कक्षा में बच्चियों को बोलने व सवाल पूछने की आज़ादी थी। मालती बेन ने उनकी कक्षा में होने वाले जन्तुओं के जीवन-चक्र के अध्ययन का एक विवरण दिया जिसका ज़िक्र सुशील जोशी द्वारा लिखित पुस्तक जश्ने तालीम में (पेज 319 पर) किया गया है (इस लेख के अन्त में दिया गया अंश देखें)।
यह विवरण मालती बेन की कक्षा की दिलचस्प तस्वीर प्रस्तुत करता है। बाल विज्ञान कार्यपुस्तक के दायरे से बाहर जाने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी। वे जन्तुओं के जीवन-चक्र में छात्राओं को बाल वैज्ञानिक के प्रयोगों के अलावा अन्य प्रयोग करने को भी उकसातीं।
जब परिभ्रमण करना होता तो वे सबसे पहले उस क्षेत्र के लोगों से मिलतीं और उनकी भी भागीदारी सुनिश्चित करतीं। मुझे ऐसे कुछ वाकये याद हैं जब धार में मलूशा और देवीजी तालाब के आसपास वे बच्चियों को ले जातीं। पत्तियों का समूहीकरण, जड़ और पत्ती, फूलों से जान-पहचान, वृद्धि, हमारी फसलें, जन्तुओं का जीवन-चक्र, जल-मृदु और कठोर इत्यादि अध्यायों में छात्राओं को कक्षा से बाहर लेकर जातीं और उनसे सम्बन्धित नमूनों को एकत्र करवातीं और किसानों, माली और समाज के लोगों से बच्चियों को बातचीत करने के अवसर उपलब्ध करवातीं।

मैं उनके साथ कई दफा परिभ्रमण पर गया। परिभ्रमण पर जाने के पहले वे छात्राओं को पर्याप्त निर्देश देतीं कि वहाँ जाकर करना क्या है। वे परिभ्रमण के दौरान छात्राओं को सूक्ष्म अवलोकन के लिए प्रेरित करतीं। उनको समझातीं कि जड़ समेत पौधे को कैसे उखाड़ना है, जड़ ज़मीन में न टूटे इसके लिए क्या करना होगा, सरल और संयुक्त पत्तियों की पहचान कैसे की जाए इत्यादि।
होशंगाबाद विज्ञान में लम्बी अवधि के प्रयोगों का खासा महत्व रहा है। लम्बी अवधि से आशय है जो एक दिन में एक या दो पीरियड में नहीं किए जा सकते। इनके लिए एक सप्ताह से लेकर एक-डेढ़ महीने का वक्त लगता है। मसलन, जन्तुओं के जीवन-चक्र में मक्खी के जीवन-चक्र का अध्ययन आम तौर पर एक सप्ताह में पूरा होता है। इसके लिए मक्खी के अण्डे खोजना व उनका तुलनात्मक अध्ययन करते हुए लार्वा, प्यूपा व वयस्क अवस्था तक का सफर एक सप्ताह का वक्त लेता है। इसी अध्याय में मेंढक का जीवन-चक्र लगभग डेढ़ माह का वक्त लेता है। पौधों में प्रजनन, वृद्धि इत्यादि ऐसे अध्याय हैं जिनमें न केवल वक्त लगता है बल्कि इन प्रयोगों में खासा ध्यान रखना होता है। मसलन, वृद्धि वाले अध्याय के लम्बी अवधि वाले प्रयोग में बीजों को कुल्हड़ में बोना और उनकी वृद्धि की माप लेना एक काम है। मगर रोज़ाना कुल्हड़ों में पानी सींचना ज़रूरी है। अगर पानी न मिले तो पौधे सूख जाएँगे और प्रयोग सम्पन्न नहीं हो सकता। मेंढक के जीवन-चक्र में भी खासा ध्यान रखना होता है। और सबसे अहम बात तो यह कि हमारे स्कूलों की माली हालत इतनी दयनीय है कि अगर इन पौधों को कक्षा में ही छोड़कर ताला लगा दिया जाए तो रात को चूहे इन पौधों को बरबाद कर देते। ऐसा कई स्कूलों से सुनने को मिलता। इस दौरान कुछ शिक्षक जिसमें मालती बेन भी शामिल थीं, उन्होंने युक्ति खोजी कि छात्रों ने लम्बी अवधि के प्रयोगों के लिए जो सेटअप लगाए हैं, क्यों न छात्र उन्हें अपने घर ले जाएँ। अगर बीच में छुट्टी होगी तो बच्चे घर पर उनकी देखरेख करेंगे। मालती बेन अपने स्कूल की छात्राओं को लम्बी अवधि के प्रयोगों को घर ले जाने को प्रेरित करतीं। और क्या अवलोकन करना है इसके निर्देश भी देतीं। इतना ही नहीं, जब छात्राएँ स्कूल में आतीं तो उन प्रयोगों के ध्यान से किए गए अवलोकनों पर चर्चा करवातीं।

जश्न-ए-तालीम में दिया गया मालती महोदय की कक्षा का विवरण

“सबसे पहले अध्याय (जन्तुओं का जीवन-चक्र) कक्षा में पढ़वाया। एक लड़की ने पूछा, ‘मैडम, उत्तर कैसे देंगे? अण्डे तो हैं ही नहीं।’ मैंने कहा, ‘कल अपन परिभ्रमण पर चलेंगे, किन्तु तुम उसके लिए सब तैयारी कर लो। किट में रखी हुई इंजेक्शन की शीशियाँ हर टोली में चार-चार देना है।’ मैंने कक्षा में मॉनीटर बना रखी थीं जो किट की अलमारी से सामान निकालकर रख देती थीं। ‘प्रत्येक टोली को जब चार-चार शीशियाँ मिल जाएँ तो उन पर लेबल लगा लो। चित्र में दिख रहे लार्वा, प्यूपा को ध्यान से देखो। इंजेक्शन की शीशियों में से एक पर डबरे का पानी, दूसरी पर मच्छर के लार्वा, तीसरी पर प्यूपा और चौथी पर नल का पानी लिख लो।’ फिर दो-दो डिब्बे पान पराग के हर टोली में दिए और उन पर ‘क’ व ‘ख’ लेबल लगाने को कहा। एक चौड़े मुँह की प्लास्टिक बोतल, हैण्ड लेंस, प्लास्टिक की पारदर्शक पन्नी, आलपिन, स्लाइड साथ में रखने को कहा।
“फिर हर प्रयोग के बारे में समझाया कि कैसे करना है। कॉपी में पहले तालिका बनवा दी, जिसमें रोज़ अवलोकन लिखेंगे।
“अगले दिन यानी 28-07-01 को परिभ्रमण पर गए। सीमा को 2-3 दिन पुराना गोबर दिखा। वह बोली, ‘मैडम गोबर की इल्ली।’ मैंने कहा, ‘यह गोबर की इल्ली नहीं है, इसे रख लो एक डिब्बे में, देखेंगे यह किसकी इल्ली है।’ थोड़ी दूर पर गाय-भैंसें चरती दिखाई दीं। मैंने कहा, ‘वहाँ चलकर देखते हैं शायद अण्डे दिखाई दें। मक्खी हमेशा ताज़े गोबर पर अण्डे देती है।’

“थोड़ी दूर जाने पर एक जगह गुच्छे में 20-25 अण्डे दिखाई दिए। मैंने श्वेता से कहा कि तुम अण्डों को ‘ख’ डिब्बे में रख लो और प्लास्टिक की पन्नी उसके मुँह पर कसकर बाँध दो और उसमें आलपिन से छोटे-छोटे छेद कर दो। ‘क’ डिब्बे में बिना अण्डे वाला गोबर रखकर वैसे ही पैक कर दो।
“फिर थोड़ा आगे बढ़े तो एक टंकी बनी थी जिसमें बहुत दिन का पानी भरा था, काई आदि जम रही थी। उसमें मुझे मच्छर के लार्वा-प्यूपा दिखाई दिए। मैंने सब लड़कियों को बुलाया और लार्वा-प्यूपा पहचानकर शीशियों में रखने को कहा। फिर उनके मुँह पर भी प्लास्टिक की पारदर्शक पन्नी बाँधकर छोटे-छोटे छेद करने को कहा। जब लार्वा-प्यूपा रख दिए तो वहाँ का पानी भी एक शीशी में रखने को कहा। एक शीशी में अपना पीने का पानी भी रख लिया।
“ये दो प्रयोग सेट होने के बाद मेंढक के अण्डे ढूँढ़ने निकल पड़े। थोड़ी दूर जाकर एक बड़ा-सा डबरा पानी से भरा मिला। जब हम वहाँ पहुँचे तो खुशी का ठिकाना न रहा -- हमें साबुन जैसे झाग में साबूदाने जैसे मेंढक के अण्डे तैरते मिल गए। बड़ी कठिनाई से हमने वे अण्डे प्लास्टिक की बरनी में भरे और लौट पड़े।
“स्कूल जाकर मेंढक के अण्डों को पानी सहित एक टूटे मटके में डाल दिया। एक अण्डा रोज़ निकालकर उसकी लम्बाई नापकर लिखने को कहा। दूसरे दिन अण्डे में से बच्चे निकले। लड़कियाँ कहने लगीं कि मैडम, ये तो मछली के बच्चे हैं। मैंने कहा कि अपन देखेंगे कि ये बच्चे मछली के हैं या मेंढक के।
“कक्षा में निम्न प्रश्नों पर चर्चा हुई:
* मेंढक के अण्डे कहाँ से आए?
* मक्खी गोबर पर ही अण्डे क्यों देती है?
* मच्छर के अण्डे क्यों नहीं दिखाई दिए?
* मक्खी 10 दिन के अन्दर बन जाती है। मच्छर तो 4-5 दिन में ही बन गया। मेंढक बनने में पूरे 40 दिन लग गए, ऐसा क्यों?
“मैंने कहा कि सबका जीवन चक्र अलग-अलग है। बाद में लड़कियाँ रेशम के कीड़ों के अण्डे, छिपकली के अण्डे ले आईं। खटमल के अण्डे ले आईं। उन्हें भी हमने शीशी में रखकर अवलोकन लिए।”  


वैज्ञानिक नज़रिए को बच्चों तक पहुँचाया
स्कूलों में छात्र जो कुछ पढ़ते-सीखते हैं, उसे अन्य जगह पर कैसे लागू किया जा सकता है -- मसलन, विज्ञान शिक्षण का असल मकसद यह है कि छात्रों में वैज्ञानिक नज़रिए का विकास हो, विज्ञान की जो अवधारणाएँ वे सीखते हैं उन्हें समाज में व्याप्त मान्यताओं को समझने में कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं -- मालती बेन इस बात को अच्छे-से समझातीं। ऐसा ही एक उदाहरण मालती बेन के स्कूल में देखने को मिलता है।

यह वह वक्त था जब बरसात के दिनों में पेड़-पौधों की पत्तियों पर नाग-नागिन के निशान बन रहे थे और मध्यप्रदेश विधानसभा में सवाल-जवाब हो रहे थे। लोगों ने पत्तेदार सब्ज़ियाँ खाना बन्द कर दिया था। इसे श्राप समझा जा रहा था। तरह-तरह की अफवाहें तैर रही थीं। तब विश्वविद्यालयों के लोग भी मूक दर्शक बने बैठे थे। उस दौरान एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका मालती महोदय ने बच्चियों को पत्तियों पर उभरी नाग-नागिन की आकृतियों के विज्ञान को समझने के लिए प्रेरित किया। उनके नेतृत्व में बच्चियों ने पत्तियों पर उभरी नाग-नागिन  की  आकृतियों  का भण्डाफोड़ किया और समाज के सामने स्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया कि यह एक कृमि का कारनामा है। इससे प्रेरित होकर धार और अन्य ज़िलों के शिक्षक-शिक्षिकाओं ने भी अपने बच्चों को इस घटना को समझने के लिए प्रेरित किया।

मालती बेन स्कूल में शिक्षण के दायरे से बाहर निकलकर लड़कियों के अधिकार के लिए भी उन्हें तैयार करतीं। सोनी नामक एक छात्रा जो उनकी कक्षा में ही पढ़ती थी, उसकी शादी जब छोटी उम्र में हो गई तब उसे मालती बेन ने सहारा दिया। वे सोनी की माँ से मिलीं और उन्हें बताया कि चाहे सोनी की शादी हो गई मगर उसे पढ़ने से न रोका जाए। मालती बेन के इस प्रयास ने सोनी में आत्मविश्वास भर दिया।

मालती बहन ने होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण में एक प्रशिक्षक के रूप में गहरा योगदान दिया। वे इस कार्यक्रम के कई पहलुओं में सक्रिय रहीं जैसे - पाठ्यपुस्तक लेखन, स्कूल फॉलोअप, मासिक बैठक आदि।
मालती  बेन  हिम्मतवाली  और जुझारु किस्म की महिला थीं। वे समाज की धारा के विपरित ही बहीं और शान से जीवन जिया। मालती बेन को सेवानिवृत्ति के बाद इन्दौर में ‘मालव सम्मान’ से नवाज़ा गया। यह सम्मान उन शिक्षकों को दिया जाता है जो शिक्षा में बेहतर काम के लिए जाने जाते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी वे प्रशिक्षण या कार्यशालाओं में अपनी भूमिका का निर्वाह करती रहीं।
मालती बेन आपकी कमी हमें खलती रहेगी।


कालू राम शर्मा: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, खरगोन में कार्यरत। स्कूली शिक्षा पर निरन्तर लेखन। फोटोग्राफी में दिलचस्पी।