किशोर पंवार
पहाड़ों पर सदाबहार जंगलों में चीड़ और देवदार के ऊँचे-ऊँचे और विशालकाय वृक्षों के इर्द-गिर्द हिन्दी फिल्मों के नायक-नायिकाओं को आँख-मिचोली करते या प्रेम गीत गाते आपने देखा ही होगा। ये फिल्मी प्रेम कहानियाँ तो द हेप्पी एंडिंग के साथ दो-ढाई घण्टों में ही समाप्त हो जाती हैं।
क्या  आप  जानते  हैं  कि  इन सदाबहार हरे-भरे जंगलों में चीड़ और देवदार की भी अपनी प्रेम कहानियाँ हैं? हालाँकि, पेड़ों की ये प्रेम कहानियाँ फिल्मों की तरह फटाफट नहीं पूरी होतीं। सर्द पहाड़ों जैसे शिमला, मसूरी, नैनीताल, कुल्लू-मनाली, जम्मू-कश्मीर, दार्जीलिंग तथा बद्रीनाथ और केदारनाथ के पहाड़ी जंगलों में चलने वाली ये कहानियाँ दो-तीन घण्टों नहीं बल्कि दो-तीन सालों में पूरी होती हैं।
आइए, ऐसी ही एक प्रेम कथा पढ़ें। इस कहानी को वनस्पतिशास्त्री चीड़ और देवदार का जीवन-चक्र कहते हैं। जीवन-चक्र जीवों का एक खास गुण होता है। यह कुछ सप्ताह से लेकर सैकड़ों साल लम्बा हो सकता है। पाइनस एरिस्टेटा नामक चीड़ का पेड़ लगभग पिछले 5000 वर्ष से ज़िन्दा है। यानी ईसा से भी लगभग 3000 वर्ष पूर्व से।
तो आइए, चीड़ की प्रेम कहानी के पन्ने पलटें। पर इसके पहले चीड़ के पेड़ से थोड़ी जान-पहचान कर लें तो अच्छा रहेगा।

चीड़ का पेड़
चीड़ का पेड़ शंकुधारी वनस्पतियों का एक प्रतिनिधि है। ये पौधे ठण्डे पहाड़ी स्थानों पर बहुतायत से मिलते हैं, जैसे पूर्वी और पश्चिमी हिमालय। देश में शंकुधारी पेड़ों के 13 वंश और 25 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। प्रसिद्ध पर्यटन शहर शिमला को शंकुधारी पेड़ों की राजधानी कहा जाता है। इन पेड़ों के मुख्यालय पहाड़ों की समुद्रतल से ऊँचाई के अनुसार बदलते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर पाइनस रॉक्सबर्गी (एक प्रकार का चीड़) समुद्रतल से 2000 मीटर की ऊँचाई तक मिलता है। हमारे जाने-पहचाने देवदार (सैड्रस दिओदर) के वृक्ष 2500 मीटर के आसपास मिलते हैं। जबकि एक अन्य शंकुधारी पीसिया के पेड़ 2000 से 3000 मीटर की ऊँचाई पर मिलते हैं। यानी आपको ऐल्टीमीटर2 की ज़रूरत नहीं है। पेड़ की प्रजाति पहचान लो, पहाड़ की समुद्रतल से ऊँचाई अपने आप पता चल जाएगी। चीड़ और देवदार, दोनों सदाबहार पेड़ हैं। ऊँचे-ऊँचे और मोटे-तगड़े -- 35 मीटर तक ऊँचे और 9 मीटर तक मोटे3।
इनकी पत्तियाँ सुई-नुमा होती हैं जिन्हें नीडल कहते हैं। हरी पत्तियाँ सर्पिलक्रम से शाखाओं पर लगी होती हैं। चीड़ के पेड़ बीजाणु उत्पादक प्रकार के होते हैं, अर्थात् बीजाणु उत्पन्न करते हैं। ये बीजाणु, बीजाणुधानियों में बनते हैं। बीजाणुधानियाँ दो प्रकार की होती हैं जो स्केली रचनाओं पर संघनित रूप से शंकुओं पर पाई जाती हैं। बीजधारी पौधों की तरह चीड़ के पेड़ भी दो प्रकार के बीजाणु बनाते हैं -- छोटे बीजाणु परागशंकु जिन्हें नर शंकु भी कहा जाता है, में बनते हैं, और बड़े बीजाणु मादा बीजाणुधानियों में।

नर शंकु पार्श्व शाखाओं पर लगते हैं और मादा शंकु शाखाओं के शीर्ष पर बनते हैं (चित्र-1)। शंकुओं को कोन या स्ट्रोबिलस भी कहते हैं। इन शंकुओं की तुलना फूलों से की जा सकती है। फूलों की तरह इनमें भी नर और मादा प्रजनन अंग होते हैं। परन्तु इन्हें फूल नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनमें फूलों की तरह नर्म, मुलायम, हरी अंखुड़ियाँ और रंगीन, नाज़ुक, सुगन्धित पंखुड़ियाँ नहीं होतीं।

नर शंकु
ये सूईनुमा पत्ती के कक्ष में बनते हैं। नर शंकु लगभग 1 से 2 सेंटीमीटर लम्बे होते हैं। प्रत्येक नर शंकु में 60-100 तक विशेष प्रकार की पत्तियाँ एक अक्ष पर सर्पिल क्रम में लगी रहती हैं। इन विशेष पत्तियों को स्पोरोफिल कहते हैं। नर शंकु की ऐसी पत्तियों को  लघुबीजाणुपर्ण (माइक्रोस्पोरोफिल) नाम दिया  गया  है  (चित्र-2)।  प्रत्येक लघुबीजाणुपर्ण की निचली सतह पर दो लघुबीजाणु-धानियाँ लगती हैं। इन बीजाणुधानियों में सूक्ष्म बीजाणु अर्थात् परागकण बनते हैं। नर शंकु चीड़ के पेड़ों पर जनवरी के अन्तिम सप्ताह में बनना शुरु होते हैं।

मादा शंकु
मादा शंकु उसी पेड़ पर परन्तु अलग शाखाओं के शीर्ष पर बनते हैं। शाखाओं पर ये 1 से 4 के समूह में लगते हैं। मादा शंकु अक्ष पर सर्पिल क्रम  में  लगे  महाबीजाणुपर्णों (मैगास्पोरोफिल) से बना होता है। मादा शंकु की रचना नर शंकु से जटिल होती है। मादा शंकु लम्बे और अण्डाकार होते हैं। महाबीजाणुपर्ण (चित्र-2) का आकार लगभग त्रिकोणीय या रोम्बाइडल होता है। प्रारम्भ में ये हरे होते हैं पर परिपक्व होने पर भूरे रंग की कठोर रचनाओं  में  बदल  जाते  हैं। महाबीजाणुपर्ण की ऊपरी सतह पर दो बीजाण्ड लगे होते हैं। इन शंकुओं का निर्माण शरद ऋतु में शुरु होता है। मादा शंकुओं को परिपक्व होने में एक-दो नहीं, पूरे तीन वर्ष लगते हैं।

पहले वर्ष में ये बहुत छोटे तथा लाल-हरे रंग के होते हैं। दूसरे वर्ष इनका आकार बढ़ता है, रंग भी बदलता है। तीसरे वर्ष में ये पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं और इनमें बीजाण्ड बन जाते हैं। इसी समय मादा शंकु के अक्ष की लम्बाई भी बढ़ती है और जो बीजाणुपर्ण एकदम सघन रूप से पास-पास चिपके रहते हैं, वे अब पृथक-पृथक हो जाते हैं। इससे परागण सम्पन्न होने में मदद मिलती है क्योंकि परागकणों का अन्दर आने का रास्ता खुल जाता है।

पंखों वाले परागकण
यह तो हम जान ही चुके हैं कि चीड़ के परागकण नरशंकुओं पर पाई जाने वाली लघुबीजाणुधानियों में बनते हैं। परागकण एककोशिकीय अगुणित रचना है। ये तीन पर्तों से ढँकी रहती है। सबसे बाहरी पर्त एक्साइन है जो परागकणों को पूरा नहीं ढँकती, केवल ऊपर की ओर आधे हिस्से में ही बनती है। दूसरी पर्त एक्सोइन्टाइन है जो परागकणों को चारों ओर से घेरे रहती है। यह परागकणों के दोनों सिरों पर दो बड़ी फुग्गेनुमा रचना के रूप में निकली होती है (चित्र-3)। इस रचना को परागकणों के पंख कहते हैं और इनमें हवा भरी रहती है। पंखों और उनमें भरी हवा के कारण परागकण हल्के हो जाते हैं और हवा में उतराते रहते हैं। तीसरी पर्त इन्टाइन है जो बहुत पतली होती है और परागकणों को चारों तरफ से घेरे रहती है।

परागकणों का विकास
परागकणों  का  विकास  सूक्ष्म बीजाणुधानियों के अन्दर ही शु डिग्री हो जाता है। इसका गुणित केन्द्रक विभाजित होकर एक प्रोथेलस कोशिका तथा एक परागनली कोशिका बनाता है। यह अवस्था आने तक लघुबीजाणु-धानियाँ सूखने लगती हैं और उनमें एक लम्बी दरार बनने से फट जाती हैं। नतीजतन परागकण बिखरने लगते हैं। हमारे यहाँ परागकणों का बिखराव अप्रैल के अन्त से जून की शुरुआत तक गर्म और शुष्क मौसम में होता है।

परागण
चीड़ में परागण यानी परागकणों का मादा शंकुओं के पास पहुँचना हवा के द्वारा होता है। अपने पंखों के भरोसे हवा में उड़ते ये परागकण अपने गन्तव्य तक पहुँचते हैं। जंगलों में परागण की यह क्रिया मार्च-अप्रैल के महीने में चलती है। इस समय चीड़ के इन जंगलों में परागकण इतनी बड़ी मात्रा में उड़ते हैं कि कई बार ऐसा लगता है कि पीले बादल उड़ रहे हों। इन दिनों जंगल में हर कहीं -- ज़मीन, चट्टानों व अन्य पेड़-पौधों पर ये पीला पराग बिखर जाता है। परागकणों की बड़ी मात्रा के कारण यहाँ की हवा तक पीली हो जाती है, अत: इसे ‘सल्फर शॉवर’ कहते हैं।
लाखों-करोड़ों की संख्या में बने इन परागकणों में से केवल कुछ ही चीड़ के मादाशंकुओं के पास अर्थात् सही जगह तक पहुँचते हैं। अन्य सब नष्ट हो जाते हैं। परागण की यह क्रिया, एक वर्ष पूर्व बने मादाशंकुओं पर होती है।

निषेचन
जब परागकण वायु की सवारी कर अपने पंखों के सहारे मादाशंकु पर स्थित बीजाण्ड (ovule) के पास पहुँचते हैं तब वहाँ पाए जाने वाले एक छिद्र जिसे माइक्रोपाइल कहते हैं, से एक रंगहीन द्रव की परागण बूंद (pollination drop) निकलती है। परागकण इस द्रव में चिपकर, इसके सूखने के साथ-साथ बीजाण्ड के अन्दर की ओर चले जाते हैं (चित्र-4)। धीरे-धीरे ये बीजाण्ड पर बने परागकोष्ठ (pollen chamber) तक पहुँच जाते हैं। इस तरह परागण क्रिया सम्पन्न होती है और मादाशंकु के शल्क पुन: बन्द हो जाते हैं। अर्थात् इन पर ‘प्रवेश निषेध’ का बोर्ड लग जाता है और मादाशंकु पुन: अपना सघन रूप धारण कर लेते हैं।
परागकोष्ठ में पहुँचने पर परागकण का अंकुरण प्रारम्भ होता है तथा परागकण बनने के दूसरे वर्ष प्रत्येक परागकण से दो नर युग्मक (sperm) बनते हैं। नर युग्मक अचल होते हैं और परागनली के अन्दर ही इसके साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। परागनली भी धीरे-धीरे बीजाण्ड में स्थित स्त्रीधानी की ओर बढ़ती है। वहाँ जाकर परागनली का अग्र सिरा फट जाता है और दोनों नर केन्द्रक मुक्त हो जाते हैं। इनमें से एक स्त्रीधानी में उपस्थित अण्ड (egg) से मिलकर उसे निषेचित कर देता है। इस तरह एक द्विगुणित युग्मनज (zygote) बन जाता है। चीड़ में परागण के लगभग एक वर्ष बाद निषेचन होता है। दूसरा नर केन्द्रक नष्ट हो जाता है।



चीड़ का भ्रूण
निषेचन के नतीजे के रूप में बना युग्मनज द्विगुणित (2n) होता है। इसे बीजाणुपादप की प्रथम कोशिका कहा जा सकता है। इसमें विभाजन होने से चार केन्द्रक बन जाते हैं। इनमें एक बार फिर विभाजन के कारण आठ केन्द्रक बन जाते हैं। पहले चार केन्द्रक जो नीचे की ओर होते हैं, से अब चार कोशिकाएँ बनती हैं जो चीड़ के भ्रूण के विकास में भाग लेती हैं।
भ्रूण से बने बीज में दो से अधिक बीज पत्र होते हैं (पाइनस की प्रजातियों में यह संख्या 23 तक हो सकती है)। भ्रूण में एक प्रांकुर एवं मूलांकुर और दोनों के बीच एक बीजपत्राधार होता है (चित्र-5)।

बीजाण्ड और बीज
चीड़ के बीज में अधिकांश भाग भ्रूणपोष  होता  है।  बीज  पत्र, बीजपत्राधार और प्राकुंर-मूलांकुर इससे घिरे रहते हैं। बीजाण्डधर शल्क के नीचे की सतह एक पतली पर्त के रूप में बीज से चिपकी रहती है। इस कारण बीज भी परागकणों की भाँति पंखयुक्त हो जाते हैं।
बीज के पकते ही मादाशंकु का अक्ष पुन: लम्बा होने लगता है जिससे बीजाणुपर्ण के बीच अन्तराल बढ़ जाता है। अर्थात् पहले जो बीजाणुपर्ण पास-पास थे, वे अब दूर-दूर हो जाते हैं। इससे बीजों के बिखराव में मदद मिलती है।  पंखदार  बीज  मादाशंकु  के बीजाणुपर्ण से आवाज़ के साथ अलग होते हैं। चीड़ की अधिकांश जातियों में बीजों का बिखराव हवा एवं पक्षियों द्वारा होता है। नटक्रेकर और क्रॉसबिल जैसे पक्षी यह काम बखूबी करते हैं।

बीजों का अंकुरण
बीज उचित पर्यावरणीय स्थितियाँ मिलने पर तुरन्त अंकुरित हो जाते हैं या फिर सुप्तावस्था में चले जाते हैं जो काफी लम्बी होती है। कुछ मामलों में कई वर्षों तक। बीज का अंकुरण ऊपर -- भूमिक (epigeal) प्रकार का होता है, अर्थात् बीज के उगने पर बीज पत्र ज़मीन से ऊपर आ जाते हैं।

 

गेमीटोफाइट बनाम स्पोरोफाइट

हमारे आसपास पाए जाने वाले पौधों को उनके शरीर की कोशिकाओं में मिलने वाले गुणसूत्रों की संख्या के आधार पर दो प्रकार में बाँटा जाता है - स्पोरोफाइट (बीजाणु उद्भिद) और गेमीटोफाइट (यूग्मकोद्भिद)। स्पोरोफाइट यानी शरीर की सभी वर्धी (vegetative) कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या दुगनी (2n) होती है। वहीं अन्य सरल प्रकार के पौधों के शरीर की सभी कोशिकाएँ अगुणित अर्थात् द प्रकार की होती हैं। द्विगुणित कोशिकाओं से बने शरीर को स्पोरोफाइट और अगुणित कोशिकाओं से बने शरीर को गेमीटोफाइट कहते हैं।
पौधों की दुनिया ब्रायोफाइट नाम के छोटे-छोटे पौधों से शुरु होती है। इन्हें हम रिक्सिया, मारकेंशिया, एंथोसेरस के नाम से पुकारते हैं। ये चपटे पौधे हैं जो दीवार पर या ज़मीन पर या पहाड़ी नालों के बीच की चट्टानों पर चिपके रहते हैं। इनका शरीर हमारे शरीर के खास अंग -- लीवर जैसा होता है। अत: इन्हें लिवरवॉर्ट कहा जाता है। बगीचों की ईंटों, पुरानी दीवारों और चट्टानों पर उगने वाली मखमली काई भी अन्य प्रकार के ब्रायोफाइट हैं जिन्हें वनस्पतिशास्त्री मॉस कहते हैं। जैसे फ्यूनेरिया और पॉलीट्राइकम आदि।

ब्रायोफाइट पौधों का शरीर अगुणित प्रकार की कोशिकाओं का बना होता है। इनका शरीर गेमीटोफाइट प्रकार कहलाता है। ये पौधे नर और मादा गेमीट उत्पन्न करते हैं। निषेचन के दौरान नर (n) और मादा (n) युग्मकों के मिलने से युग्मनज बनता है जिसमें गुणसूत्रों की संख्या डबल अर्थात् 2n हो जाती है। इस द्विगुणित युग्मनज के विभाजन से बनी कोशिकाएँ और इनसे बना शरीर बीजाणु उद्भिद कहलाता है। स्पोरोफाइट आगे चलकर अगुणित (n) बीजाणु उत्पन्न करता है जिससे फिर गेमीटोफाइट बनता है।
पौधे के विकास की दूसरी पायदान पर टेरिडोफाइट हैं जिन्हें आम तौर पर फर्न भी कहा जाता है। कुछ क्लब मॉस भी हैं इनमें, हालाँकि ये सत्य मॉस (ब्रायोफाइट) नहीं हैं। टेरिडोफाइट समूह के पौधों का शरीर स्पोरोफाइट कहलाता है। इनके शरीर में मुख्यत: पत्तियाँ और तना एवं राइज़ोम जैसी रचनाएँ पाई जाती हैं। सत्य जड़ें नहीं मिलतीं। इनके शरीर की सभी कोशिकाएँ द्विगुणित (2n) प्रकार  की  होती  हैं। स्पोरोफाइट पौधा बीजाणु बनाता है जो अगुणित (n) प्रकार के होते हैं जो स्पोरोफिल पर बनते हैं। इनके जीवन-चक्र में गेमीटोफाइट अवस्था बहुत छोटी होती है जिसे आम तौर पर प्रोथेलस कहते हैं। ये बीजाणु के अंकुरण से बनते हैं जो नर और मादा गेमीट उत्पन्न करते हैं।

तीसरे और चौथे पायदान पर क्रमश: अनावृतबीजी एवं आवृतबीजी (बीजधारी) पौधे हैं। ये हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं। अनावृतबीजी जैसे चीड़, विद्या, देवदार, क्रिसमस ट्री आदि जो अधिकतर पहाड़ों पर मिलते हैं। आवृतबीजी में सभी फूलधारी पौधे शुमार हैं जैसे आम-अमरूद, नीम-पीपल, घास-बाँस आदि। इन सभी का शरीर स्पोरोफाइट प्रकार का होता है जिसे स्पष्ट रूप से जड़, तना, पत्तियों में बाँटा जा सकता है। परिपक्व होने पर ये शंकु या फूल धारण कर प्रजनन करते हैं। यानी शंकु और फूल इनके लैंगिक प्रजनन अंग हैं।
इनके जीवन-चक्र में भी युग्मकोद्भिद अर्थात् गेमीटोफाइट अवस्था आती है जिसमें गेमीट बनते हैं। परन्तु यह अवस्था अल्पजीवी तथा स्पोरोफाइट पर आश्रित होती है और केवल कुछ ही कोशिकाओं की बनी होती है।
जहाँ ब्रायोफाइट में मुख्य पौधा गेमीटोफाइट प्रकार का होता है तथा जड़ व पत्तीनुमा रचनाओं में बँटा रहता है, वहीं टेरिडोफाइट से लेकर अनावृतबीजी और फूलधारी पौधे -- सभी में मुख्य पौधा स्पोरोफाइट प्रकार का होता है और सत्य प्रकार की जड़ों, पत्तियों व तने में बँटा रहता है।
इन सभी पौधों में ये दोनों अवस्थाएँ एक के बाद एक (किसी में छोटे तथा किसी मेंबड़े रूप में) आती रहती हैं जिसे पीढ़ियों का एकान्तरण कहते हैं।

 एक बीज -- तीन पीढ़ियाँ!
चीड़ का बीज बड़ा रोचक है। इसमें एक साथ तीन पीढ़ियों का समावेश मिलता है। बीज का छिल्का टेस्टा (testa) और न्यूसैलस से बना होता है, जो मुख्य पेड़ का हिस्सा है। अर्थात् पहली बीजाणु उद्भिद पीढ़ी का प्रतिनिधि। बीज का एंडोस्पर्म (भ्रूणपोष) मादा युग्मकोद्भिद (gametophyte) का शेष भाग है। अर्थात् युग्मकोद्भिद पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। निषेचन के उपरान्त बना भ्रूण नई बीजाणु उद्भिद (sporophyte) पीढ़ी का प्रतिनिधि है।
इस तरह चीड़ के पेड़ में दो बीजाणु उद्भिद पीढ़ी (एक नई, एक पुरानी) तथा एक युग्मकोद्भिद पीढ़ी होती है।
नए बीज अर्थात् पौधों की सन्तान बनने के साथ ही धीमी गति की इस प्रेम कहानी का ‘दि एण्ड’ हो जाता है। यह फिल्म प्रकृति के बड़े पर्दे पर चलती रहती है, साल-दर-साल, चाहे हम देखें या न देखें। हमारे जैसे वनस्पति विज्ञानी तो यह फिल्म देखते ही रहते हैं। अब आप भी जब कभी मैदानी गर्मी से राहत पाने के लिए पहाड़ों पर जाएँ तो इस फिल्म को ज़रूर देखिएगा।


किशोर पंवार: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में बीज तकनीकी विभाग के विभागाध्यक्ष और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक हैं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से लम्बा जुड़ाव रहा है जिसके तहत बाल वैज्ञानिक के अध्यायों का लेखन और प्रशिक्षण देने का कार्य किया है। एकलव्य द्वारा जीवों के क्रियाकलापों पर आपकी तीन किताबें प्रकाशित। शौकिया फोटोग्राफर, लोक भाषा में विज्ञान लेखन व विज्ञान शिक्षण में रुचि।