रंजना सिंह

भाषा अध्ययन शिक्षण कुछ दशकों से गहन चर्चा का विषय रहा है। इन चर्चाओं का एक प्रमुख केन्द्र बिन्दु भाषा शिक्षण की ध्वनि-वर्ण एवं समग्र-भाषा पद्धतियाँ उन चर्चाओं के केन्द्र की विषयवस्तु रही हैं। ध्वनि-वर्ण पद्धति से लगभग हम सब परिचित हैं क्योंकि प्राय: हम सभी ने अपनी प्राथमिक कक्षाओं में अ, आ, इ, ई...क, ख, ग, घ... से शु डिग्री करके ही भाषा सीखी है। इस पद्धति में हमें पहले भाषा की सबसे छोटी इकाई ‘अक्षर’ से परिचित कराया जाता है, तत्पश्चात अक्षरों से मिलकर बनी उससे बड़ी इकाई ‘शब्द’ हमारे भाषा ज्ञान का भाग बनते हैं और फिर ‘वाक्य’ जो हमें किसी अवस्था या प्रक्रिया का अर्थ बताते हैं।
दूसरी ओर समग्र-भाषा पद्धति है जिसके अन्तर्गत बच्चा ठीक उसी प्रक्रिया द्वारा भाषा सीखता है जिस प्रक्रिया द्वारा वह घर में अपनी मातृभाषा सीखता है। हर बच्चा पैदाइश के बाद शुरुआती वर्षों में अपने घर में बोली जाने वाली भाषा बोलना सीख जाता है और इस प्रक्रिया में वह सर्वप्रथम भाषा का समग्र (सम्पूर्ण) रूप सुनता है। भाषा की समझ बच्चा धीरे-धीरे अपने सन्दर्भ में सृजित करता है, और उसके मौखिक रूप में परिपूर्णता हासिल कर लेता है। ज़्यादातर बच्चे भाषा के अनेक मानक जैसे लिखना और पढ़ना आदि औपचारिक रूप से विद्यालय में सीखते हैं। मेरा अनुभव है कि इस पद्धति में बच्चों को अर्थ सृजित करने और समझने में कम संघर्ष करना पड़ता है और बच्चा अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त कर पता है।

एक कार्टून फिल्म से..
ऐसा ही एक अनुभव मैं आपके साथ साझा कर रही हूँ जिसे मैंने स्कूली बच्चों के साथ काम करते हुए दर्ज किया है। मैंने भाषाई कौशल के तहत सुनना, बोलना, पढ़ना व लिखना को ध्यान में रखते हुए एक हिन्दी भाषा की पाठ योजना तैयार की। मेरी इस पाठ योजना में छह मिनट की एक कार्टून फिल्म1 भी शामिल थी। यह फिल्म मुझे वाट्सएप के ज़रिए मिली थी। जब मैंने उस फिल्म को देखा तो बहुत पसन्द आई। लगे हाथ मैंने यह फिल्म अपनी तीन साल की भतीजी को भी दिखा दी जिसे यह इतनी पसन्द आई कि उसने इसे 4-5 बार देख लिया।
यह फिल्म एक चिड़िया (Piper bird) के बच्चे के आत्मनिर्भर बनने की कहानी है जिसमें चिड़िया का बच्चा खाना ढूँढ़ना सीखता है। फिल्म की खास बात यह है कि इसमें कहानी को दर्शाने के लिए सिर्फ भावों-क्रियाओं का प्रयोग किया गया है, कोई मौखिक या लिखित भाषा प्रयोग में नहीं लाई गई है। फिर भी इसमें निहित हर एक भाव, हर एक बात मेरी 3 वर्ष की भतीजी भी समझ पा रही थी और अपनी समझ को टूटे-फूटे वाक्यों में बोलकर मुझे बताने की कोशिश कर रही थी।
तो यहीं से विचार आया कि क्यों न कक्षा-2 के बच्चों को यह फिल्म दिखाई जाए और इसके ज़रिए भाषा के कौशल पर काम किया जाए। कक्षा-2 का चयन इसलिए भी किया क्योंकि इस पड़ाव पर बच्चे भाषा के औपचारिक रूप को देखना, समझना शु डिग्री ही कर रहे होते हैं और दूसरा, ऐसी कोई पाठ योजना इस कक्षा के साथ क्रियान्वित करना मेरे लिए आसान था। वैसे इस पाठ योजना का क्रियान्वयन प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय की किसी भी कक्षा में कराया जा सकता है। कक्षा बढ़ने के साथ-साथ बच्चों के लेखन में घटनाओं के विवरण की गहराई, भावों की विविधता और कहानी कहने के ढंग की गुणवत्ता बढ़ती ही जाएगी। साथ ही इस फिल्म के माध्यम से बच्चों को पर्यावरण अध्ययन के सन्दर्भ में जीव-प्राणी जगत से भी अवगत कराया जा सकता है और विशेष प्रकार की चिड़ियों की खाने की आदतों की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया जा सकता है।

जो कक्षा में किया...
मैंने कक्षा में बातचीत करते हुए बताया कि “आज हम एक छोटी-सी फिल्म देखेंगे। फिल्म में संवाद नहीं हैं तो हमें ध्यान से फिल्म देखनी होगी। फिल्म मेरे फोन में है। सभी बच्चे एक साथ तो फिल्म नहीं देख पाएँगे इसलिए 5-5 बच्चे समूह में आएँगे और फिर फिल्म देखेंगे।” इस सन्दर्भ के साथ, कक्षा के बच्चों को 5-5 के समूह में विभाजित किया गया और उनका फिल्म देखने का क्रम भी निर्धारित किया गया।
जब सभी बच्चों ने फिल्म देख ली तब समय आया इस पर बात करने का, बच्चों की व्याख्याओं, क्रियाओं व भावों को सुनने का। वैसे तो फिल्म देखते हुए ही बच्चे कुछ-कुछ क्रियाओं व भावों को मौखिक भाषा के द्वारा व्यक्त करने लगे थे परन्तु यह समय था जब सभी बच्चे अपने विचारों को सबके समक्ष रख पाएँ। दूसरा बच्चा पहले बच्चे के विचारों को आगे बढ़ाते हुए उसमें अपनी बात जोड़ पाए तथा अनेक बातों के मध्य तारतम्यता-निरन्तरता स्थापित कर, देखी गई फिल्म को लिखित कहानी का रूप दिया जाए।
इसके लिए मात्र एक प्रश्न पूछा गया, “आप लोगों ने फिल्म में क्या देखा?”
कई बच्चे एक साथ तत्पर होकर बताने लगे, तो मैंने कहा, “ऐसे मुझे न तो कुछ ठीक से सुनाई देगा और न ही मैं कुछ समझ पाऊँगी, हम एक-एक करके अपनी बात कहेंगे और जो बोलने के लिए तैयार होगा वह अपना हाथ खड़ा करेगा।” फिर बच्चों ने बारी-बारी बोलना शु डिग्री किया।

बच्चा-1: इसमें चिड़िया थी, उसकी मम्मी थी।
बच्चा-2: चिड़िया की मम्मी चिड़िया को खाना ढूँढ़ने के लिए कहती है पर छोटी चिड़िया अपनी मम्मी को कहती है कि यहीं खाना लाकर दो।
बच्चा-3: इसमें पानी भी था, पानी में से खाना ढूँढ़कर खा रही थी चिड़िया।
बच्चा-4: केंकड़ा भी था, चिड़िया जब पानी से डरके भाग रही थी तो केंकड़े पर चढ़ जाती है। फिर चिड़िया को खाना ढूँढ़ना आ जाता है।
मैं: पर चिड़िया को खाना ढूँढ़ना आ कैसे जाता है?
बच्चा-5: केंकड़े से सीखती है। जब पानी आता है तो केंकड़ा मिट्टी में घुस जाता है, चिड़िया भी मिट्टी में घुस जाती है, फिर उसे डर नहीं लगता और खुश हो जाती है और फिर खाना ढूँढ़ने लगती है।

बच्चों से बात करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि चूँकि कहानी को बच्चे अपने शब्दों में कह पा रहे हैं इसलिए उन्हें यह कहानी अपने शब्दों में लिखने के लिए कहा जा सकता है। फिर मैंने बच्चों से कहा कि “जो तुमने फिल्म में देखा और फिल्म देखकर जो तुम्हारे मन में आया उसे अब कागज़ पर लिखना है। जितना चाहे उतना लिख सकते हो। जैसा चाहे वैसा लिख सकते हो - कहानी, कविता, चित्र --कुछ भी।” अपेक्षित था तो भाव, घटनाएँ और कहानी की निरन्तरता। अक्सर हम शिक्षक लेखन में शब्द संख्या, तयशुदा समय में लिखना, मानक भाषा में लिखना जैसी अपेक्षाओं के साथ लेखन को बाँधने की कोशिश करते हैं। लेकिन मैंने ऐसी अपेक्षाओं को दरकिनार करते हुए बच्चों को लेखन का मौका देने का विचार बनाया।
कुछ बच्चे बीच-बीच में पूछने आ रहे थे कि ये शब्द कैसे लिखा जाता है या इस शब्द की स्पेलिंग बता दीजिए, तो उन शब्दों को कैसे लिखना है यह उन्हें बता दिया। कुछ बच्चों ने कहानी को काफी विस्तार में लिखा जबकि कुछ ने काफी संक्षेप में कहानी की घटनाओं को वाक्यों में पिरोया। कुछ ने सिर्फ लिखकर व्यक्त किया, कुछ ने लिखाई के साथ चित्रों का माध्यम भी चुना।

हम धीरे-धीरे एक-एक पायदान आगे बढ़ रहे थे। जब सभी बच्चों ने कहानी को अपने शब्दों में लिख लिया तो एक-एक करके हर बच्चा सामने आया और उसने अपनी लिखी कहानी पढ़ी। वे बड़ी सहजता से अपनी कहानी पढ़ रहे थे। जबकि मेरा विश्वास है कि अगर मैं पढ़ने की कोशिश करती तो उनकी कहानी से इन्साफ नहीं कर पाती क्योंकि कहानी लिखने में काफी मात्रा में स्वरचित शब्दों (invented spellings) का प्रयोग किया गया था जो मुझसे बेहतर बच्चे खुद समझ रहे थे। कहानी पढ़ते समय उन्हें जहाँ वाक्य में तारतम्यता बनती नहीं लग रही थी वहाँ अपने आप उसे ठीक भी कर रहे थे। उदाहरण स्वरुप एक बच्चे ने वाक्य पढ़ा, “चिड़िया अचानक से पानी में तैरने लगी क्योंकि उस तैरना नहीं आता था।”
इस वाक्य को पढ़ने के तुरन्त बाद उसने दोबारा यह वाक्य पढ़ा, “चिड़िया अचानक से पानी में तैरने लगी क्योंकि उसे तैरना नहीं आता था।”

पहले से लिखी हुई किसी विषय वस्तु को अपनी कॉपी में उतारने की सीमा तक ही बाँधकर रख दिया जाता है। मैं ऐसा कोई दावा नहीं कर रही हूँ कि मेरी इस एक गतिविधि से बच्चे लिखना सीख गए या भाषाई मानकता के लिहाज़ से परिपक्व हो गए हैं। मेरा इस क्रियाकलाप का उद्देश्य सिर्फ इतना था कि बच्चों को मौका दिया जाए - मनन का, अपनी बात कहने का और सोचकर लिखने का। लिखना भी वह जो उनके मस्तिष्क से निकलता है, न कि वह जो पहले से लिखा हुआ है।


रंजना सिंह: म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, दिल्ली के विद्यालय में प्राइमरी शिक्षक हैं। केन्द्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल (शिक्षा) कर रही हैं। अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन में कुछ समय गणित की रिसोर्स पर्सन तथा दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में गणित की शिक्षक के तौर पर काम किया। पाठ्यक्रम डेवलपर के तौर पर भी छह वर्ष तक कार्य किया है।