लेखक :  सीमा वाही
अनुवाद: श्रीकान्त आप्टे

हज़ारों साल पहले जब मनुष्य अस्तित्व में आया, जीवन के अनगिनत रूपों से उसका पहला-पहला परिचय हुआ। उसे रोज़मर्रा के संघर्षों और उपलब्धियों को वाणी या चित्रों के माध्यम से व्यक्त करने की आवश्यकता महसूस हुई। इस तरह कहानियों का जन्म हुआ। वीरता, संघर्ष, उपलब्धियों, साहसिक कार्यों, रहस्यों, कल्पनाओं, आदर्शों और अनेकों विषयों पर कहानियाँ, भावनाओं और अनुभवों के कई रंगों और विविधताओं को दर्शाती हुई।

कहानी आखिर करती क्या है?
बच्चों के लिए, कहानियाँ बड़ा होने की प्रक्रिया का एक आकर्षक और रुचिकर हिस्सा रही हैं - दादी माँ की कहानियों से लेकर सोने के समय माता-पिता से सुनी कहानियों तक, रोमांच से विश्राम तक - कहानियाँ कई उद्देश्य पूरे करती हैं। कहानियाँ कल्पनाओं को जगाती हैं और बच्चों को किसी दूसरी दुनिया में ले जाती हैं।
मेरी नज़र में कहानियाँ आवश्यक माध्यम हैं, केवल मनोरंजन और सुनने, बोलने, पढ़ने व लिखने के गुणों के विकास के लिए ही नहीं वरन् दुनिया के बारे में समझ विकसित करने के लिए, विचार क्षमता बढ़ाने के लिए, कल्पना शक्ति और उत्सुकता के पोषण के लिए और श्रोताओं में स्थितियों को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की क्षमता विकसित करने के लिए भी।

पिछली गर्मियों में मैंने ‘अवर स्टोरी सर्कल’ नाम से एक समूह प्रारम्भ किया। विभिन्न विषय-क्षेत्रों के विकास के लिए हर कहानी से जुड़ी गतिविधियाँ थीं-
(क) भाषा
(ख) संज्ञान सम्बन्धी यानी कोग्निटिव
(ग) व्यक्तिगत, सामाजिक और भावनात्मक
(घ) सौन्दर्यबोध
(च) शारीरिक (सूक्ष्म, स्थूल, एवं संवेदनात्मक)
इन सब क्षेत्रों से सम्बन्धित गतिविधियाँ इस प्रकार थीं:
1. कठपुतली बनाना और कठपुतली नचाने की कला
2. खुद कहानी गढ़ना
3. कहानियों से अलग-अलग प्रकार के संकलन बनाना
4. कहानियों का नाट्य-रूपान्तरण और उनमें भूमिका निभाना
5. जीवन से जुड़े अनेक विषयों पर भाषण, लेख आदि
6. रेखांकन
7. चित्रकारी
8. क्रम में जमाना
9. खाना पकाना
10. पहेलियाँ बनाना
11. नक्शा बनाना और उसे पढ़ना
12. चित्र पढ़ना
और ऐसी बहुत-सी अन्य गतिविधियाँ।

गतिविधियाँ कहानियों और समूह की रुचियों के आधार पर विकसित हुईं। एक ही कहानी में सारी गतिविधियाँ शामिल नहीं की गई थीं। बच्चों को उनकी उम्र, आवश्यकताओं, रुचियों और दक्षता को देखकर काम पर लगाया गया। मैंने तय किया था कि 3-6 और 7-12 आयुवर्ग वाले दो समूह होंगे। कार्यशाला में, 3-12 वर्ष के इकट्ठे समूह को एक ही कहानी में अलग-अलग तरह से शामिल किया।
एकलव्य, तूलिका, प्रथम, एनबीटी, विवा, स्कॉलिस्टिक्स द्वारा प्रकाशित बेहतरीन पुस्तकों से मैंने मदद ली। जिन कहानियों को मैंने चुना उनमें से एक वी. सुतेयेव की कहानी ‘द थ्री किटंस’ थी। तीनों समूहों के सम्मुख कहानी को अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया गया। इस लेख में मैंने कहानी के सत्रों के दौरान जो हुआ उसे और कहानी के प्रति बच्चों की प्रतिक्रियाओं पर अपने विचार व्यक्त करने का प्रयास किया है।

पहले समूह के साथ कहानी पाठ
पहले समूह ने कहानी का आनन्द उठाया और विस्मय के साथ सुना कि बिल्ली के बच्चों की हर हरकत के बाद क्या होगा। इस समूह की रुचि बिल्ली के बच्चों जैसा अभिनय करने में थी। मेरे पास पहले से ही गत्ते का एक बड़ा-सा डिब्बा था जिसे पीपे और उसके बाद सुरंग का रूप दिया जा सकता था। बच्चे गत्ते के डिब्बे में घुसकर जब बाहर आए तो उनके कन्धों पर सफेद पोशाक डाल दी गई। फिर उस गत्ते के डिब्बे को लिटाकर सुरंग बना दिया गया जिसमें बच्चे घुसे और जब बाहर निकले तो उन पर काली पोशाक डाल दी गई। तालाब दर्शाने के लिए फर्श पर एक गोला खींचा गया। उसमें छलांग लगाकर जब बच्चे बाहर निकले तो उनके ऊपर पहनाई गई अतिरिक्त पोशाकों को निकाल दिया गया। ‘द थ्री किटंस’ का अभिनय करने में उन्हें मज़ा आया। इसके पश्चात् मोटे कागज़ से बिल्ली के बच्चों की कठपुतली बनाने का काम हुआ।

जब छोटे बच्चे कठपुतलिया बना रहे थे तब बड़े बच्चों ने वहाँ प्रवेश किया। वे भी बिल्ली के बच्चे बनाना चाहते थे और उन्होंने कहानी सुनने या कहानी की किताब पढ़ने का आग्रह किया। कहानी से परिचित हो जाने के बाद वे खुद भी कागज़ की कठपुतली बनाने में जुट गए। बच्चों ने अपनी-अपनी पसन्द के रंग वाले मोटे कागज़ चुने। जल्द ही वे अलग-अलग विचार व्यक्त करने लगे - केवल बिल्ली के बच्चे ही क्यों, बिल्ली क्यों नहीं। कुछ ने तो बिल्ली बनाई और उसका मुँह बदलकर उसे शेर का रूप दे दिया। एक बच्चे ने बिल्ली और शेर के बारे में कहानी बना डाली। इससे अन्य बच्चे प्रेरित हुए और उन्होंने भी अपनी-अपनी कहानियाँ बनाईं जिनमें एक पात्र बिल्ली या बिल्ली का बच्चा था। इस प्रक्रिया में चार कहानियाँ तैयार हुईं: अनुष्का की ‘आलसी कैट’, ध्रुव की ‘कैट एंड द पेंटस्’, अबीर और मंजीमा की ‘द कैट एंड हिज़ फ्रेंड्स’।

बच्चों ने संवाद लिखे और कहानियों को कठपुतली के खेल में बदल दिया। उन्होंने मखमल से बनी कठपुतलियाँ, जो मैंने बहुत सालों पहले बनाई थीं, इस्तेमाल कीं - यह सोचकर कि चूँकि वे कागज़ की कठपुतलियाँ बेचने वाले हैं इसलिए उन्हें अपने खेल के लिए कुछ और इस्तेमाल करना चाहिए। उन्होंने कठपुतली के खेल का खूब अभ्यास किया। मैंने सिर्फ इतना किया कि यह सब ध्यान से देखा और उन्हें आवाज़ के उतार-चढ़ाव, कठपुतलियों के बेहतर प्रस्तुतीकरण आदि के सुझाव दिए, और उन्हें याद दिलाती रही कि वे एक ‘टीम’ हैं। समूह ने एक-दूसरे की प्रस्तुतियाँ देखीं, सुझाव दिए और अलग-अलग प्रस्तुतिकर्ताओं को सहायता प्रदान की। यह समूह एक स्टॉल लगाना चाहता था और कठपुतली के खेल के प्रदर्शन से अपने कार्यक्रम को समाप्त करना चाहता था।

उन्होंने अपार्टमेंट कॉम्पलेक्स के भीतर बनी दुकानों के पास एक स्टॉल लगाया - प्रदर्शन के टिकिट बेचे और कठपुतलियों को, जो उन्होंने बनाना सीखी थीं, बेचा। उन्होंने एक अत्यन्त मनोरंजक प्रदर्शन किया। मैं खुश थी यह देखकर कि ‘टीम’ का सन्देश दर्ज़ हो चुका था। स्टॉल में और प्रदर्शन के दौरान वे एक-दूसरे की सहायता कर रहे थे। बच्चों और बड़ों, दोनों ने प्रदर्शन की प्रशंसा की। दर्शकों में से कुछ बच्चे कठपुतलियाँ खरीदने एवं खुद खेल तैयार करने के लिए प्रेरित हुए और उन्हें दर्शकों के सामने प्रस्तुति देने का मौका दिया गया। मैं प्रत्येक बच्चे की प्रतिभा और कल्पनाशीलता से आश्चर्यचकित थी - हमें बस इतना करना होता है कि उसे आकार देने के लिए मंच उपलब्ध कराएँ, उनका ध्यान रखें और उन्हें मार्गदर्शन दें, केवल तब जब अत्यन्त आवश्यक हो।

दूसरे समूह के साथ कहानी पाठ
जब मैंने दूसरे समूह (आयु वर्ग 3-8 वर्ष) के साथ ऊँचे स्वर में कहानी पढ़ी तो उसे ठीक किताब में दी गई कहानी जैसा ही रखा गया। मैंने कहानी के शीर्षक, लेखक और प्रकाशक की जानकारी देने से शु डिग्री किया। प्रथम दो पृष्ठों के बाद ही कुछ बच्चों ने तत्परता से अपनी राय व्यक्त की कि सफेद बिल्ली का बच्चा सबसे अधिक सुन्दर है। आगे सवाल करने पर, मैंने महसूस किया कि काले से गोरे को बेहतर मानने वाली परम्परागत भारतीय सोच यहाँ भी काम कर रही थी।

एक बच्ची (जिसे मैं तुहिना पुकारूँगी - सही नाम से नहीं) जो स्वयं साफ रंग की थी, ने ज़ोर देकर कहा कि “सफेद सबसे सुन्दर था” जबकि गेहुँए रंग वाली एक अन्य लड़की खामोश थी। काले को भी उतना ही सुन्दर मानने वाला हर सुझाव तुहिना ने खारिज कर दिया। बावजूद इसके मैंने अपनी राय दी कि हर रंग सुन्दर होता है और इस पर कुछ बच्चों ने सहमति भी जताई। मैंने कहानी जारी रखी क्योंकि अन्य बच्चे देखना और सुनना चाहते थे कि कहानी में बिल्ली के बच्चे आगे क्या करने वाले हैं। छोटे बच्चे उत्सुक थे कि आगे बिल्ली के बच्चे किस रंग में बदल जाएँगे। बड़े बच्चे बिल्ली के सभी बच्चों को पहले भूरा, उसके बाद कत्थई और कई रंगों का बनाकर कहानी को लम्बा चाहते थे। वे ‘डेश्ड्, चेज़्ड, हॉप्ड, क्रॉल्ड’ जैसे कई शब्दों को पढ़कर रोमांचित थे। उन्होंने इस कहानी के पहले एक अन्य कहानी सुनी थी और जानवरों की चाल को वर्णित करने वाले शब्द सीखे थे - जैसे कि स्नेक स्लिथर्ड, एलिफेंट स्टोम्प्ड। क्रियाओं के इस्तेमाल करने के तरीकों में उन्हें मज़ा आया।

एक बात जो कोई बच्चा नहीं समझ पाया, वह थी स्टोव पाइप और उसके अन्दर से काला होने की अवधारणा। अन्दर से काले रंग से ताज़े पुते हुए पाइप की बात उन्हें ज़्यादा स्वीकार्य लग रही थी। मैंने बिल्ली के सफेद बच्चे को सबसे सुन्दर बताए जाने की बात पर गौर किया। मैंने अपने तीन साल के बच्चे के सामने भी यह कहानी पढ़ी थी पर यह पहलू कभी सामने नहीं आया। मैं सोच रही थी कि अगले समूह के सामने इस कहानी को किस तरह पेश किया जाए। इस बार मैंने बिल्ली के बच्चों के लिए नाम सोचे: हबल, बबल और ट्रबल।
काले का नाम ‘बबल’, भूरे का ‘ट्रबल’ और सफेद का नाम ‘हबल’ रखा।

फिर मैंने उनके किरदारों को और विस्तार दिया; भूरा सबसे पहले मुसीबत में पड़ा, उसके फौरन बाद सफेद ने उसका अनुसरण किया; काले रंग का बच्चा अनिच्छुक था और उसने शेष दोनों को भी रोकने की कोशिश की (उसने उन दोनों बच्चों का अनुसरण किया, इस उम्मीद में कि दोनों की सुरक्षा का ध्यान रखेगा)। पहला व्यक्ति जिससे मैंने इस पर चर्चा की, वह मेरा 12 वर्षीय बेटा था। किसी वजह से उसे मेरा सुझाव पसन्द नहीं आया। उसने सफेद के लिए ‘बबल’ नाम ज़्यादा पसन्द किया जबकि भूरे के लिए ‘हबल’ और काले के लिए ‘ट्रबल’ हो सकता था।

इससे मुझे समझ में आया कि कैसे किरदारों के नाम तय करने में रंग को अच्छाई से जोड़ने वाला हमारा दृष्टिकोण बच्चे के दिमाग पर गहरा प्रभाव रखता है। मैंने उससे चर्चा की कि क्यों केवल काला ही ‘ट्रबल’ और सफेद ‘बबल’ हो सकता है। क्यों कोई सुन्दर वस्तु जैसे कि बबल का सम्बन्ध केवल सफेद रंग से हो सकता है? हमने इस पर बात की और मेरा बच्चा खामोश हो गया।
मैंने महसूस किया कि उसे इस पर विचार करने के लिए समय चाहिए।

तीसरे समूह के साथ कहानी पाठ
तीसरी बार जब मैंने यह कहानी उठाई, मैं किसी भी किस्म की सम्भावित चर्चा के लिए बेहतर तरीके से तैयार थी। मैंने कहानी के शीर्षक, लेखक और प्रकाशक के बारे में बताया और किताब में दिए नाम के स्थान पर किरदारों का परिचय ‘बबल’, ‘हबल’ और ‘ट्रबल’ के रूप में दिया। इस समूह ने कहानी पर मिली-जुली प्रतिक्रिया दी - कुछ बच्चों ने कहा उन्हें भूरा पसन्द है, दो को काला पसन्द आया परन्तु शेष ने सफेद को पसन्द किया। जब किरदारों को नाम दिए जा रहे थे तो अधिकांश बच्चे सफेद बिल्ली के बच्चे के लिए ‘बबल’ नाम चाहते थे, शेष दो का नाम क्या हो इसमें उनकी कोई विशेष राय नहीं थी यद्यपि उन्हें ‘हबल’ बिलकुल पसन्द नहीं आया। “यह भी कोई नाम हुआ? इसका मतलब क्या है? आप ऐसे ही बना रही हो। यह नाम अच्छा नहीं है।” इस बात पर अच्छी चर्चा हुई कि क्यों सफेद को ‘बबल’ होना चाहिए, ‘हबल’ नहीं। सफेद बच्चे को ‘हबल’ पुकारे जाने से काफी बच्चे नाखुश थे।
शुक्र है कि मेरा बारह साल का बेटा बोला कि उसे भूरा सबसे ज़्यादा पसन्द है और हर नाम अच्छा है। अन्त में, बहुत-से बच्चे नामों से पूरी तरह छुटकारा चाहते थे क्योंकि उन्हें लगा कि वे इससे भ्रमित हो जाएँगे। मुझे समझ में आया कि चर्चा के बावजूद, वे सफेद को ही सुन्दर मान रहे थे और वे उसके लिए ‘बबल’ के अलावा अन्य कोई नाम नहीं चाहते थे। लेकिन एक सकारात्मक कदम यह था कि अब वे शेष दो बिल्ली के बच्चों को भी उतना ही आकर्षक मानने के प्रति अधिक सहज थे पर इतने भी नहीं कि उन्हें ‘बबल’ नाम दिया जाए!

विचारों का पनपना
यह जानना मेरे लिए एक महत्वपूर्ण अनुभव था कि चार से आठ वर्ष के छोटे-छोटे बच्चों के मन में यह बात इतनी गहराई से कैसे बैठ जाती है कि सफेद या गोरा रंग सुन्दर और बेहतर होता है। और-तो-और यह बात कहानी पात्रों जिसे वे अच्छा या सुन्दर मानते हैं, के नामों को स्वीकार करने को भी प्रभावित करती है।
मुझे जिस बात की चिन्ता हो रही थी वह यह थी कि यदि बच्चे, जो खुद गोरे रंग के न हों, ‘सफेद’ या ‘गोरे’ रंग को ज़्यादा तरजीह देते हैं और ‘काले’ रंग को पूरी तरह से नकार देते हैं, तो क्या वे खुद को भी किसी स्तर पर अस्वीकार करते हैं?
क्या उनको, खुद के द्वारा खुद को अस्वीकार करने का एहसास है?
क्या उनके माँ-बाप को इस बात की जानकारी है?
क्या उनके माँ-बाप भी इस बात के लिए ज़िम्मेदार हैं?
क्या यही कारण है कि मैं जब उन्हें पार्क में देखती हूँ तो पाती हूँ कि येनकेन प्रकारेण वे गोरे, तीखे नैन-नक्श और सुन्दर कपड़े पहने बच्चे के साथ खेलना चाहते हैं?

क्या यह अस्वीकार, भविष्य में किसी प्रकार से आत्मसम्मान की कमी के रूप में नज़र आता है और ‘फेयर एंड लवली’ जैसे ब्राण्ड्स के लिए अच्छा व्यापार लाता है?
क्या इस तरह की सोच बनाने में इन ब्राण्ड्स द्वारा टेलीविज़न पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों का कोई हाथ है या मौजूदा सोच व्यवसाय करने और फिर उसी सोच को पुख्ता कर उसके दम पर व्यवसाय के फलने-फूलने का दुष्चक्र है ये?

हूँ.....मैं अभी भी सोच रही हूँ। परन्तु जो बात मेरे लिए सर्वाधिक विचारणीय है वह यह कि हर व्यक्ति को - भले ही वो किसी भी रंग का हो, अपने आप से खुश रहना चाहिए और त्वचा का रंग किसी व्यक्ति की अच्छाई के बारे में राय कायम करने का आधार नहीं होना चाहिए।
मैं इस विषय पर आपकी राय ज़रूर जानना चाहूँगी।
क्या आपकी नज़र में इस अध्ययन का कोई महत्व है?
या मैं ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही हूँ और राई का पहाड़ बना रही हूँ?
खैर, कौन सोच सकता था कि ‘द थ्री किटंस’ जैसी सरल-सी कहानी की किताब ऐसे प्रश्न खड़े कर सकती है।
एक बात और, क्या वी. सुतेयेव ने यह सब सोचा होगा और फिर ‘द थ्री किटंस’ - एक काला, एक भूरा और एक सफेद - की कहानी लिखी होगी?


सीमा वाही: सक्रिय व रचनात्मक उद्यमी से शिक्षा के क्षेत्र को अपनाया है।। शिक्षा के कार्यक्रमों में विकास करने के साथ-साथ प्रौढ़ साक्षरता और अँग्रेज़ी भाषा के संचार के लिए काम करती हैं। बच्चों में किताबे पढ़ने की आदत को बढ़ाना इनकी रुचि का विषय है। गुड़गाँव, हरियाणा में निवास।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: श्रीकान्त आप्टे: स्वतंत्र लेखक हैं। नाटक लेखन एवं चित्रकारी में रुचि। भोपाल में निवास।
सभी फोटोग्राफ: सीमा वाडी।
‘द थ्री किटेंस’ किताब एकलव्य द्वारा प्रकाशित की गई है।