भारत में आम चुनाव का आगाज़ हो चुका है। हालिया चुनावी घोषणाओं से वैज्ञानिक समुदाय को प्रयुक्त विज्ञान में निवेश बढ़ने की उम्मीद है लेकिन इसके साथ ही कुछ चिंताएं भी हैं। अनुसंधान और विकास (R&D) के लिए वित्त पोषण में वृद्धि भारत की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ कदम मिलाकर नहीं चल रही है। विज्ञान वित्तपोषण में शीर्ष से (टॉप-डाउन) नियंत्रण के चलते पैसे के आवंटन में शोधकर्ताओं की राय का महत्व नगण्य रह गया है।
गौरतलब है कि 2014 में प्रधान मंत्री मोदी के प्रथम कार्यकाल के बाद से अनुसंधान एवं विकास के बजट में वृद्धि देखी गई है। लेकिन देश के जीडीपी के प्रतिशत के रूप में यह बजट निरंतर कम होता गया है। 2014-15 में यह जीडीपी का 0.71 प्रतिशत था जबकि 2020-21 में गिरकर 0.64 प्रतिशत पर आ गया। यह प्रतिशत चीन (2.4 प्रतिशत), ब्राज़ील (1.3 प्रतिशत) और रूस (1.1 प्रतिशत) जैसे देशों की तुलना में काफी कम है। गौरतलब है कि भारत में अनुसंधान सरकारी आवंटन पर अधिक निर्भर है। भारत में अनुसंधान एवं विकास के लिए 60 प्रतिशत खर्च सरकार से आता है, जबकि अमेरिका में सरकार का योगदान मात्र 20 प्रतिशत है।
अलबत्ता, इन वित्तीय अड़चनों के बावजूद, भारत ने असाधारण वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल की हैं। 2023 में, भारत चंद्रमा पर सफलतापूर्वक अंतरिक्ष यान उतारने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। बहुत ही मामूली बजट पर इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए इसरो की काफी सराहना भी की गई। औषधि व टीकों के विकास के क्षेत्र में भी उपलब्धियां उल्लेखनीय रही हैं। फिर भी, कई अनुसंधान क्षेत्रों को अपर्याप्त धन के कारण असफलताओं का सामना करना पड़ा है।
पिछले वर्ष सरकार द्वारा वैज्ञानिक अनुसंधान को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना की घोषणा की गई थी। इसके लिए सरकार ने पांच वर्षों में 500 अरब रुपए की व्यवस्था का वादा किया था। इसमें से 140 अरब रुपए सरकार द्वारा और बाकी की राशि निजी स्रोतों से मिलने की बात कही गई थी। लेकिन वित्तीय वर्ष 2023-24 में सरकार ने इसके लिए मात्र 2.6 अरब रुपए और वर्तमान वित्त वर्ष में 20 अरब रुपए आवंटित किए हैं; निजी स्रोतों के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है।
वर्तमान स्थिति देखी जाए तो भारत का दृष्टिकोण विज्ञान को त्वरित विकास के एक साधन के रूप में देखने का है। लेकिन इसमें पूरा ध्यान आधारभूत विज्ञान की बजाय उपयोगी अनुसंधान पर केंद्रित रहता है। जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च के भौतिक विज्ञानी उमेश वाघमारे का अनुमान है कि आगामी चुनाव में भाजपा की जीत इस प्रवृत्ति को और तेज़ कर सकती है।
गौरतलब है कि शोधकर्ता और विशेषज्ञ काफी समय से निर्णय प्रक्रिया और धन आवंटन में अधिक स्वायत्तता की मांग करते रहे हैं। वाघमारे का सुझाव है कि उच्च अधिकारियों को सलाहकार की हैसियत से काम करना चाहिए जबकि वैज्ञानिक समितियों को अधिक नियंत्रण मिलना चाहिए। वर्तमान में, प्रधानमंत्री एनआरएफ के अध्यक्ष हैं और अधिकांश संचालन मंत्रियों और सचिवों द्वारा किया जाता है; वैज्ञानिक समुदाय की भागीदारी काफी कम है।
इसके अलावा, जटिल प्रशासनिक और वित्तीय नियमों के चलते शोधकर्ता आवंटित राशि का पूरी तरह से उपयोग भी नहीं कर पाते। भारत सरकार की पूर्व सलाहकार शैलजा वैद्य गुप्ता दशकों की प्रशासनिक स्वायत्तता की बदौलत इसरो को मिली उपलब्धियों का हवाला देते हुए, विश्वास और लचीलेपन की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं।
यह काफी हैरानी की बात है कि 2024 के चुनाव अभियान में भी हमेशा की तरह विज्ञान प्रमुख विषय नहीं रहा है। इंडियन रिसर्च वॉचडॉग के संस्थापक अचल अग्रवाल राजनीतिक विमर्श से विज्ञान की अनुपस्थिति पर अफसोस जताते हैं और कहते हैं कि चाहे कोई भी पार्टी जीते भारतीय विज्ञान का भविष्य तो बदलने वाला नहीं है।
बहरहाल, हम हर तरफ भारत की अर्थव्यवस्था के लगातार फलने-फूलने की बात तो सुनते हैं लेकिन एक सत्य यह भी है कि वैज्ञानिक समुदाय वित्तपोषण और स्वायत्तता सम्बंधी चुनौतियों से जूझता रहा है। ये मुद्दे अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत के भविष्य और वैश्विक वैज्ञानिक नेता के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने की क्षमता के बारे में चिंताएं बढ़ाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - June 2024
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