आम समझ है कि गरीबी कम होने से ऊर्जा उपयोग में वृद्धि होगी। लेकिन हाल ही में नेपाल, वियतनाम और ज़ाम्बिया में किए गए अध्ययन से विपरीत परिणाम सामने आए हैं, जिसमें गरीबी में कमी का सम्बंध ऊर्जा के कम उपयोग से देखा गया है।
अत्यधिक गरीबी को खत्म करने की वर्तमान रणनीतियां इस सोच पर टिकी हैं कि इसके लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है। तभी तो परिवारों और सरकार की खर्च करने की क्षमता बढ़ेगी और हम अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कर पाएंगे। इस तरह गरीबी की ‘पहचान’ आय के आधार पर करने से ‘समाधान’ आर्थिक विकास के रूप में उभरता है।
हालांकि, बढ़ती असमानताओं और विश्व के अधिकांश भागों में स्वच्छता संकट के चलते आर्थिक विकास के फायदे शायद न मिल पाएं। ज़ाहिर है कि गरीबी का सम्बंध सिर्फ आय से नहीं बल्कि विभिन्न अधिकारों और सेवाओं से वंचना से है। यानी लोग इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि उनके पास प्रतिदिन गरीबी सीमा से अधिक खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं बल्कि उनके पास स्वच्छता, शिक्षा या स्वास्थ्य प्रदान करने वाली वस्तुओं या सेवाओं तक पहुंच नहीं है। वास्तव में आय में वृद्धि के बाद भी इन सेवाओं तक पहुंच बना पाना काफी मुश्किल होता है। वर्तमान में सवा अरब लोगों को स्वच्छता और साफ पानी मयस्सर नहीं है जबकि तीन अरब लोगों के पास स्वच्छ र्इंधन भी नहीं है। यह सही है कि गरीबी अभावों का निर्धारण करती है लेकिन सिर्फ आय एकमात्र कारक नहीं है।
इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट की शोधकर्ता मार्टा बाल्ट्रुज़ेविक्ज़ और उनके सहयोगियों ने बहुआयामी गरीबी के अन्य कारणों को समझने और कम संसाधनों से इसका समाधान करने पर अध्ययन किया। इसमें मुख्य रूप से दो सवालों पर अध्ययन किया: अच्छे जीवन के लिए क्या चाहिए, और इसमें कितनी ऊर्जा खर्च होती है? शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने का भी प्रयास किया है कि इन संसाधनों का किस प्रकार उपयोग किया जाता है, किसके द्वारा किया जाता है, किस उद्देश्य से किया जाता है और इससे गरीबी पर किस प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। इसके साथ ही साफ पानी, भोजन, बुनियादी शिक्षा और आधुनिक र्इंधन तक पहुंच से सम्बंधित अभावों का भी अध्ययन किया गया है। अध्ययन में खर्च और जीवन स्तर के आंकड़े राष्ट्रीय पारिवारिक सर्वेक्षणों से और ऊर्जा खपत की जानकारी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा जारी किए गए आकड़ों से ली गई। इनकी मदद से वे यह देख पाए कि कोई परिवार बिजली, र्इंधन, यातायात के लिए पेट्रोल तथा सेवाओं और सामान वगैरह के रूप में कितनी ऊर्जा का उपयोग करता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन घरों में स्वच्छ र्इंधन, सुरक्षित पानी, बुनियादी शिक्षा और पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है, यानी जो लोग अत्यधिक गरीब की श्रेणी में नहीं आते हैं, वे देश के राष्ट्रीय औसत से सिर्फ आधी ऊर्जा का उपयोग करते हैं। यह निष्कर्ष इस तर्क के एकदम विपरीत है कि अत्यधिक गरीबी से बचने के लिए अधिक संसाधनों और ऊर्जा की ज़रूरत है। ऊर्जा खपत में कमी का सबसे बड़ा कारण खाना बनाने के लिए लकड़ी, कोयला या चारकोल जैसे पारंपरिक र्इंधन से हटकर अधिक कुशल और कम प्रदूषण करने वाले र्इंधनों (बिजली या गैस) का उपयोग करना है।
देखा जाए तो ज़ाम्बिया, नेपाल और वियतनाम में आमदनी और सामान्य खर्च और मनोरंजन पर किए जाने वाले खर्चों की अपेक्षा आधुनिक ऊर्जा संसाधनों का वितरण बहुत असमान है। इसके परिणामस्वरूप, अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों को अधिक मलिन ऊर्जा का उपयोग करना पड़ता है जिसके स्वास्थ्य तथा जेंडर सम्बंधी कुप्रभाव होते हैं। अकुशल र्इंधन के उपयोग से खाना पकाने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत भी होती है।
ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या उच्च आय और अधिक ऊर्जा उपकरणों के उपयोग करने वाले परिवारों के पास गरीबी से बचने की बेहतर संभावना होती है? कुछ परिवारों के लिए यह सही हो सकता है लेकिन उच्च आय या फिर मोबाइल फोन होना न तो बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की शर्त हैं और न ही इसकी गारंटी। बिजली और स्वच्छता तक पहुंच के अभाव में कई अपेक्षाकृत सम्पन्न परिवार भी बच्चों के कुपोषण या कोयले के उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से बच नहीं पाते। यह विडंबना है कि अधिकांश परिवारों के लिए स्वच्छ र्इंधन की तुलना में मोबाइल फोन प्राप्त करना ज़्यादा आसान है। ऐसे में घरेलू आय के माध्यम से विकास को मापने से गरीबी और उसके अभावों की अधूरी समझ ही प्राप्त हो सकती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि गरीब देशों में विकास के लिए अधिक ऊर्जा का उपयोग न किया जाए। उनका कहना है कि कुल ऊर्जा खपत की बजाय गरीबी से निजात पाने के लिए सामूहिक सेवाओं पर अधिक निवेश किया जाए।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि गरीब देशों के पास इन सेवाओं में निवेश करने की इतनी कम क्षमता क्यों है। वास्तव में गरीबी होती नहीं, बल्कि निर्मित की जाती है - संरचनात्मक समायोजन या राष्ट्रीय ऋण पर ऊंचे ब्याज जैसी धन निष्कर्षण की सम्बंधित प्रणालियों के माध्यम से।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से अमीर अल्पसंख्यक वर्ग ज़िम्मेदार है जो अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है, लेकिन दुर्भाग्य से इसके परिणाम गरीब बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को वहन करना पड़ते हैं। इस नज़रिए से देखें तो मानव विकास न सिर्फ आर्थिक न्याय का बल्कि जलवायु न्याय का भी मुद्दा है। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - November 2017
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