यह बहस बहुत पुरानी है कि पानी का अपना कोई स्वाद होता है या वह सिर्फ विभिन्न स्वादों का वाहक है। अब तक यही मत बना है कि हमारी जीभ पांच स्वादों को भांप सकती है - नमकीन, खट्टा, मीठा, कड़वा और उमामी। उमामी नामक स्वाद इस सूची में काफी देर से जुड़ा है और यह मोनो सोडियम ग्लूटामेट नामक पदार्थ का स्वाद होता है। इस स्वाद के लिए ज़िम्मेदार घटक टमाटर में काफी मात्रा में पाए जाते हैं। इस सूची में पानी का नाम नहीं है। मगर ताज़ा अनुसंधान दर्शा रहा है कि पानी को पहचानने के लिए अलग से तंत्रिकाएं होती हैं। इन तंत्रिकाओं की उपस्थिति पहले कीटों और उभयचरों में देखी गई थी और अब स्तनधारियों में ऐसी तंत्रिकाएं खोजी गई हैं।
पहले किए गए प्रयोगों में पता चला था कि स्तनधारियों के मस्तिष्क के हायपोथेलेमस नामक हिस्से में पानी की उपस्थिति को पहचानने की क्षमता होती है और यहीं से किसी जीव को पानी पीने अथवा रुक जाने के संदेश मिलते हैं। किंतु हायपोथेलेमस को ये सूचनाएं तो मुंह और जीभ से ही मिलती होंगी। तो कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के यूकी ओका व उनके साथियों ने इसे समझने के लिए कुछ प्रयोग किए। पहले तो उन्होंने चूहे की जीभ पर पानी को भांपने वाली कोशिकाओं की तलाश की। इसके लिए उन्होंने स्वाद कोशिकाओं को चुन-चुनकर काम करने से रोकने की रणनीति अख्तियार की। इस प्रयास का सबसे रोचक नतीजा यह निकला कि जो कोशिकाएं तेज़ाब (खट्टेपन) को भांपती हैं, वे पानी मिलने पर भी अति सक्रिय हो उठती हैं। जब खट्टी स्वाद कोशिकाओं से वंचित चूहों को पानी या एक अन्य तरल पीने को दिया गया तो उन्हें सामान्य चूहों की अपेक्षा यह निर्णय करने में ज़्यादा समय लगा कि पानी कौन-सा है।
इसके बाद टीम ने एक और तकनीक का सहारा लिया - इसे प्रकाशीय जेनेटिक्स कहते हैं। इसमें तंत्रिका कोशिका को लेसर प्रकाश देकर वही क्रिया करने को उकसाया जा सकता है जो वे तब करतीं जब उन्हें उनको उकसाने वाला पदार्थ मिलता है। टीम ने ऐसे चूहे तैयार किए जो खट्टे स्वाद वाली कोशिका में ऐसी प्रकाशीय क्रिया दर्शाते हैं। नीला प्रकाश मिलने पर वे पानी पीने को प्रेरित होते हैं। जब इनके सामने नीले प्रकाश का एक फव्वारा रखा गया तो वे उस प्रकाश को पीने की कोशिश करने लगे मगर रुक ही नहीं रहे थे क्योंकि उन्हें पानी तो मिल नहीं रहा था। नीले प्रकाश से प्यास थोड़े ही बुझती है। नेचर न्यूरोसाइन्स में प्रकाशित इस शोध पत्र में बताया गया है कि ये चूहे कभी नहीं ताड़ पाए कि वह नीला प्रकाश पानी नहीं है। अर्थात लेसर से मिलने वाला संकेत उन्हें पानी पीने को तो उकसा सकता है मगर यह नहीं बता सकता कि कब रुकना है।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि खट्टे स्वाद वाली स्वाद ग्रंथियां पानी के प्रति संवेदनशील किस तरह से हो जाती हैं किंतु एक परिकल्पना यह है कि शायद पानी पीने से स्वाद ग्रंथियों पर से लार की परत हट जाती है और इसकी वजह से कोशिका के अंदर की अम्लीयता बदलती है और यह संदेश दिमाग को मिलता है। यही पानी का स्वाद है। अब इसे स्वाद कहें या मात्र पानी की चाह का नियमन, यह तो शायद शब्दों का खेल है। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - September 2017
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